Monday, October 19, 2015

अक्टूबर की सुबह

कौन कहता है बदलाव अच्छा नहीं होता
अक्टूबर की सुबह सैर पे जा के तो देखो

अक्टूबर की सुबह
मतलब
सर्दी की पहली चहल पहल
हाफ स्वेटर का आगाज़
हर पल चाय की उठती तलब
खुद पे इतराते हुए फूल
हाथ मलते हुए लोग
लम्बी सांस लेते सैर पे निकले लोग
गर घर से एक दम निकल जाओ
तो रोंगटे खड़े हो जाएं
कुछ ऐसी ही सुभावनी है
अक्टूबर की सुबह

भावार्थ
२२/१०/२०१५



Saturday, October 17, 2015

अँधेरा पुकारे उजारे को

अँधेरा पुकारे उजारे को
बूँद निहारे किनारे को

धधक रहा हर इक पल
बुझादो वक़्त के पारे को

भंवर है ये साँसों का
थमने को ढूढे सहारे को

तू ही खुदा है जान ले तू
क्यूँ तके चाँद और तारे को


भावार्थ
१७/१०/२०१५

















Wednesday, October 14, 2015

~ इश्क़ ~

~ इश्क़ ~

इश्क़ इक अलफ़ाज़ भर नहीं
ये गूंजती मचलती ग़ज़ल है
घुँघरू की छन छन की तरह
रूह की  जिस्म  से वसल है


जीने के लिए एक जिंदगी बहुत ज्यादा है
और पाक मोहब्बत के लिए बहुत कम

अलफ़ाज़ उस आग को बयाँ  कैसे करें
जो लगाये ना लगे और बुझाए न बुझे

बहुत उधार बाकी है हमसफ़र का मुझपे
हर एक बोसा जो उसने मरहम का दिया

तेरे होने से सांस है
तेरे होने से आज है
तेरे होने से हर्फ़ हैं
तेरे होने से साज हैं

गर खुदा ने दर्द की जिंदगी बख्शी
तो इश्क़ का मरहम भी दिया उसने


इश्क़ जब परवान चढ़ता है
तो हमशक्ल हो जाते है हम
 भावार्थ
१५/१०/२०१५



Saturday, October 10, 2015

पोटली दर्द की लिए फिरता तू




पोटली दर्द की लिए फिरता तू
क्यों न खुदसे दूर इसे रखता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

आह ये जिस्म से जो उठती है
थक गया हूँ बस यही कहता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

कून्स जो एक तेरे जेहेन में हैं
कोढ़ बनके  क्यों है रिसता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

मंजिल से पहले ही राह मिट गयी
किस वजह से है फिर  चलता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

तूने बारिश बनके लुटाया है सब
रह गया है सेहरा सा कराहता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

हर  मरासिम की डोर टूट गयी
क्यों उसी डोर से है बंधा रहता तू 

पोटली दर्द की लिए फिरता तू
क्यों न खुदसे दूर इसे रखता तू

भावार्थ
११/१०/२१०५



Monday, October 5, 2015

तुम न मरने तो अपनी माँ को

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

मिटा ही दो उस रीत को तुम 
जिसको पुरखो ने बनाया था 
गौ माता  और कामधेनु कह 
उन लोगों ने मेरा मान बढ़ाया था
बेघर दिखती  है गलियों में जो 
तुम यूँ न फिरने दो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

भूख से है दयनीय हाल मेरा 
कैसे फिर  तुमको दूँ वरदान
अश्रु मेरे तुम देख न पाते 
कैसे समझूँ तुमको इंसान 
इस भूख की गहरी खायी में 
न गिरने दो पानी माँ को 
तुम न मिटने दो पानी माँ को 

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 


हर आह मेरी मुझतक सीमित 
इस बहरे धरम के लोगों में 
बस मूह की बकबक करके जो 
लिप्त हुए हैं विषयों  भोगों में  
इस नरक से बूचड़ खाने में 
तुम न  कटने ने दो अपनी माँ को 

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

भावार्थ 
०२/१०/२०१५