मेरा गम जो बनी ग़ज़ल तो भी अच्छी थी...
वो इज़हार-ए-ख़ुशी बनी तो भी अच्छी थी...
दो जून का सहारा है मेरे अपनों का ये ग़ज़ल...
मेरे अलफ़ाज़ उनका लुफ्त बनी तो भी अच्छी थी...
गम-ए-दांस्ता पे जिसके लोग वाह-२ किया करते है ...
उसी अभागे को यहाँ लोग शायर कहा करते हैं...
सदियों में मिला है चंद को मीर-ओ-ग़ालिब का मकाम...
जिसकी खायिश में करोडो शायरी किया करते हैं...
जो तुमको है जूनून लिखने और सुनाने का ...
ये शौक है तो बेहतर है कहीं रोजगार न बने ...
बाप दादाओं की साख ले डूबे हैं कुछ सर फिरे...
फिजूली का जायका तुम्हारा अफकार न बने...
मेरा गम जो बनी ग़ज़ल तो भी अच्छी थी...
वो इज़हार-ए-ख़ुशी बनी तो भी अच्छी थी...
दो जून का सहारा है मेरे अपनों का ये ग़ज़ल...
मेरे अलफ़ाज़ उनका लुफ्त बनी तो भी अच्छी थी...
भावार्थ
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