Monday, March 23, 2009

दर्द मिन्नत_काश-ऐ-दवा न हुआ

दर्द मिन्नत_काश-ऐ-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ

जमा'अ करते हो क्यों रकीबों का ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहाँ किस्मत आजमाने जायें ?
तू ही जब खंजर आजमा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लैब ! की रकीब
गालियाँ खाके बे_मज़ा न हुआ

है ख़बर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ !

क्या वोह नमरूद की खुदाई थी
बंदगी में तेरा भला न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी
हक तो ये है के हक अदा न हुआ

ज़ख्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रावणः हुआ

रहज़नी है की दिल_सितानी है ?
लेके दिल, दिल_सीतां रावणः हुआ

कुच्छ तो पढिये की लोग कहते हैं
"आज 'ग़लिब' घज़ल्सरा न हुआ"

...मिर्जा गालिब

1 comment:

सागर said...

भाई आपका ब्लॉग बहुत सुन्दर है, इतना प्रयास सराहनीय है...

लेकिन स्पेलिंग की गलतियाँ बहुत हैं... कृपया गजलों, शेरों को सही सही लिखा/टाइप किया करें

इस ग़ज़ल में बहुत ही ज्यादा गलती है... पाठकों के साथ धोखा होगा और भरमाने वाली बात भी.
दो उदहारण...
बोरिया = वीराना
घज़ल्सरा = ग़ज़ल सरां