झुकी नज़रों से यूँ तो मेरी हया बयाँ होती है
वो उठें तो कुछ पानेे की चाह बेइन्तेआह् होती है
यु तो मेरे वजूद की कई हिस्से मौजूद हैं इर्द गिर्द
मगर हस्ती मेरी फिर भी गुमशुदा सरेराह होती है
दर्द के तिनको से सजा है मेरा मखमली एहसास
आंसू से रात और आह से हर एक सुबह होती है
सोचती हूँ मुझे मेरे अक्स से कब रिहाई मिलेगी
खुले आसमान में भी मेरी कैद बेपनाह होती है
भावार्थ
२५/०६/२०१६
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