दो साल की जीनत
सुबह स्कूल जाने उठती न थी
अम्मी ने जिद कर उसे
गोद में भर के उठा ही लिया
नहलाया और सजाया
नज़र से बचने को टीका भी लगाया
पानी की बोतल गले में
किताबों का बैग पीठ पे
सर पे स्कार्फ उढ़ाकर
भेज दिया जीनत को स्कूल
अब्बू मुझे गुड़िया लाना शाम को
इसी जिद के आसरे वो दहलीज़ से गयी
हाथ हिला कर उसने "खुदा हाफ़िज़" कहा था
दो साल की जीनत
तो कुछ बोलती नहीं है
अब्बू की गोद में
इतनी खामोश वो कभी न रही थी
मेरी तितली जीनत
न उसकी बोतल थी
न वो बैग और न वो लाल स्कार्फ
ये सो रही है क्या मैंने पुछा
आंसू आँखों के गले तक भर चुके थे
अब्बू बोले ये अब न उठेगी
हमारी जीनत अब कभी न उठेगी
अब कौन अब्बू से जिद करेगा
गुड़िया तो ले आये अब्बू
मगर खेलने को 'गुड़िया' नहीं रही
मेरी दो साल की जीनत नहीं रही
खुदा भी "हाफ़िज़" न रख पाया "परी" को
दहशत और खौफ का शिकार बन गयी
दो साल की जीनत
भावार्थ
१६/१२/२०१४
पेशावर स्कूल के बच्चो को समर्पित