अब खुदा भी नहीं रहा शायद...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं...
पाप में लिपटे ये गोश्त...
इंसान कहते है जिन्हें सब ...
पाप खाते और पाप पीते हैं...
पाप के दल दल में डूबे है सब ...
तेरी याद नहीं इबादत भी नहीं...
अब खुदा भी नहीं रहा शायद ...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं...
बेहतर होता तू कीड़े ही बनाता...
पनपते और मर जाते सब...
तेरे नाम पर लहू तो न बहता ...
पशु तो न फिर कहलाते सब...
तेरा जिक्र नहीं तुझको सजदा भी नहीं...
अब खुदा भी न रहा शायद...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं ...
बालिश्त भर पेट दिया तो ...
फिर मीलो लम्बी चाहते क्यों दी...
जिंदगी बख्शी तुने जिस रूह को...
पाप करने की इनायतें क्यों दी...
तेरा नाम नहीं तुझसे सलाम नहीं...
अब खुदा भी न रहा शायद...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं...
भावार्थ
2 comments:
जय सिंह जी,
यथार्थ हो उठा भावार्थ!!
बालिश्त भर पेट दिया तो ...
फिर मीलो लम्बी चाहते क्यों दी...
जिंदगी बख्शी तुने जिस रूह को...
पाप करने की इनायतें क्यों दी...
तेरा नाम नहीं तुझसे सलाम नहीं...
इतनी ज्वलंत कविता ....बिरले ही ऐसा सोचते हैं
और भाव प्रकट करते हैं..
बेहतर होता तू कीड़े ही बनाता...
पनपते और मर जाते सब...
तेरे नाम पर लहू तो न बहता ...
पशु तो न फिर कहलाते सब...
जिंदगी बख्शी तुने जिस रूह को...
पाप करने की इनायतें क्यों दी...
बहुत ही गहराई है इन पंक्तियुं में
शानदार कविता के लिए बधाई!!
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