दोस्ती न थी वो ...
बस दोस्ती के परछाई थी...
जिसे मैं कुछ पल को हकीकत समझ बैठा...
लम्हों को जिंदगी...
जिंदगी को अफसाना...
अफसाने को जिंदगी की जजा समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी...
दर्द उसके ऐसे सहे...
जैसे ख़ुद के दिल मैं हों उठे...
मैं पागल था उसे खुदा की सौगात समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी...
शाम ढलने तक रही ...
वो मेरी रहगुजर बन कर ...
मैं खामखा उसे हमसफ़र समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी....
जिसे कुछ पल को मैं हकीकत समझ बैठा...
...भावार्थ
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