Monday, May 3, 2010

मन का तिलिस्म !!!


मेरे करीब न आओ साकी ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...

कुछ पल ठहरो और फिर देखो...
ये तड़पती शाम सो जाएगी...
हर एक चाहत हर एक खायिश...
पैमाने मैं कहीं खो जाएगी...

तुम उस राह से गुजर जाओ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...

उम्र का हर रंग यहाँ दिखता है...
रहने वालो में भी , कहने वालो में भी...
बाज़ार का सा आलम दिखता है...
आने वालो में भी, जाने वालो में भी...

जो तुम चाहो तो बिक जाओ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...

क्या है भला और क्या है बुरा...
हमने तुमने ही तो बनाया है...
कहीं फूल और कहीं संग फैंक ...
अपने मन का तिलिस्म बनाया है...

तुम जाकर उसमें खो जाओ ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...

मेरे करीब न आओ साकी...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...

...भावार्थ

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