तेज रफ़्तार में...
सपनो को लिए...
दूर तक फैली...
रेलगाड़ी जब निकली...
बच्चे पास के गाँव के...
उसके साथ साथ दौड़े...
जैसे छूना चाहते हों...
और लोहे की कोख में ...
हर एक मुसाफिर...
मंजिल का उसके जरिये ...
मानो उसे पाना चाहते हों...
ये किसकी नज़र लगी...
लोहे की टूटी कड़ी थी ...
कुछ ही पल में रफ़्तार ...
मौत बन कर खड़ी थी...
देखते ही देखते...
चीखे हवा में घुल गयी...
सपनो की पोटली ...
कच्ची नीद में खुल गयी...
हर एक सपना खो गया...
जीता जागता इंसान सो गया...
दूर तक फैली रात और ...
बुद्ध पूर्णिमा का पूरा चाँद ...
कितनी जिंदगियों में...
घोर अँधेरा कर गया...
बोद्ध बिक्षुओं की टोली ..
कुछ दूर कहती गुजरी...
बुद्धं शरणम् गच्छामि...
धम्मम शरणम् गच्छामि...
...भावार्थ
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Friday, May 28, 2010
Wednesday, May 26, 2010
सहमी सहमी !!!
कंपकपाती है वो !!!
आँखों के खौफ से...
सहम जाती है वो...
रिवाजो में लिपटी...
कंपकपाती है वो...
तन्हाई की गरज से...
सहम जाती है वो...
उन पैमानों से नपी...
इन रिश्तो से डरी...
हर दहलीज़ से चली...
मुड़ना मौत हो जैसे...
तैरता खौफ हो जैसे...
हर नज़र जो भी उठी...
कंपकपाती है वो...
सहम जाती है वो...
...भावार्थ
आँखों के खौफ से...
सहम जाती है वो...
रिवाजो में लिपटी...
कंपकपाती है वो...
तन्हाई की गरज से...
सहम जाती है वो...
उन पैमानों से नपी...
इन रिश्तो से डरी...
हर दहलीज़ से चली...
मुड़ना मौत हो जैसे...
तैरता खौफ हो जैसे...
हर नज़र जो भी उठी...
कंपकपाती है वो...
सहम जाती है वो...
...भावार्थ
Friday, May 14, 2010
दोस्ती की परछाई !!!
दोस्ती न थी वो ...
बस दोस्ती के परछाई थी...
जिसे मैं कुछ पल को हकीकत समझ बैठा...
लम्हों को जिंदगी...
जिंदगी को अफसाना...
अफसाने को जिंदगी की जजा समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी...
दर्द उसके ऐसे सहे...
जैसे ख़ुद के दिल मैं हों उठे...
मैं पागल था उसे खुदा की सौगात समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी...
शाम ढलने तक रही ...
वो मेरी रहगुजर बन कर ...
मैं खामखा उसे हमसफ़र समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी....
जिसे कुछ पल को मैं हकीकत समझ बैठा...
...भावार्थ
बस दोस्ती के परछाई थी...
जिसे मैं कुछ पल को हकीकत समझ बैठा...
लम्हों को जिंदगी...
जिंदगी को अफसाना...
अफसाने को जिंदगी की जजा समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी...
दर्द उसके ऐसे सहे...
जैसे ख़ुद के दिल मैं हों उठे...
मैं पागल था उसे खुदा की सौगात समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी...
शाम ढलने तक रही ...
वो मेरी रहगुजर बन कर ...
मैं खामखा उसे हमसफ़र समझ बैठा...
दोस्ती न थी वो...
बस दोस्ती की परछाई थी....
जिसे कुछ पल को मैं हकीकत समझ बैठा...
...भावार्थ
Tuesday, May 11, 2010
आतुर है !!!
Monday, May 3, 2010
मन का तिलिस्म !!!
मेरे करीब न आओ साकी ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...
कुछ पल ठहरो और फिर देखो...
ये तड़पती शाम सो जाएगी...
हर एक चाहत हर एक खायिश...
पैमाने मैं कहीं खो जाएगी...
तुम उस राह से गुजर जाओ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...
उम्र का हर रंग यहाँ दिखता है...
रहने वालो में भी , कहने वालो में भी...
बाज़ार का सा आलम दिखता है...
आने वालो में भी, जाने वालो में भी...
जो तुम चाहो तो बिक जाओ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...
क्या है भला और क्या है बुरा...
हमने तुमने ही तो बनाया है...
कहीं फूल और कहीं संग फैंक ...
अपने मन का तिलिस्म बनाया है...
तुम जाकर उसमें खो जाओ ...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...
मेरे करीब न आओ साकी...
मैं तो होश की चादर ओढ़े हूँ...
...भावार्थ
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