Sunday, February 23, 2014

बेसहारा हूँ मैं

जिसे रोज जीतने निकला
उसी दुश्मन से रोज हारा हूँ मैं
खुदको किस काम का समझूं
हद दर्जे का नाकारा हूँ मैं
बूझ कर भी न समझ  पाऊँ
इसकदर यहाँ आवारा हूँ मैं
समंदर की  ओख  में भी प्यासा
वो बदनसीब किनारा हूँ मैं
कीट भी बेहतर है मुझ इंसा से
शमा भी नसीब नहीं वो बेज़ारा  हूँ मैं
जो खुद को खुद से न बचा पाये
किस कदर  हुआ  बेसहारा हूँ मैं
जिसे रोज जीतने निकला 'भावार्थ'
उसी दुश्मन से रोज हारा हूँ मैं

~ भावार्थ ~ 




Sunday, February 16, 2014

मेरी जुस्तजू का हिरन !!!

मेरी जुस्तजू का हिरन …
मेरे हाथ नहीं आता
इस माया के जंगल में
बहरूपिया बनके  दौड़ता
मेरी जुस्तजू का हिरन …

मैं भी थक जाता हूँ
भागते भागते उसके पीछे
नज़र फिर भी रखता हूँ मैं
सोच कर कि मिलेगा मुझे
मेरी जुस्तजू का हिरन …

वक़्त कि पगडंडी पे चलते
झुर्रियां पड़ गयी जवानी पे
बूढा हो गया मैं  लेकिन
वो आज भी जवान है
मेरी जुस्तजू का हिरन

यही सोच कर निकला था
शिकार कर लाऊंगा उसे
मगर मालूम न था
शिकारी में नहीं वो है
मेरी जुस्तजू का हिरन


~ भावार्थ ~ 

Saturday, February 8, 2014

न बोलूँ मैं तो कलेजा फूंके

न बोलूँ मैं तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है
सुलग न जावे अगर  सुने वो 
जो बात मेरी  जबां  तले  हैं

न बोलूँ तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है

लगे तो फिर यूँ कि रोग लागे 
न सांस आवे न सांस जावे
ये इश्क़ है नामुराद ऐसा
ये जान लेवे तभी टले है

न बोलूँ तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है

हमारी हालत पे कित्ता रोवे है
आसमान भी तू देख लियो
कि सुर्ख हो जाएँ उसकी आँखें  भी
जैसे जैसे ये दिन ढले है

न बोलूँ तो कलेजा फूंके
जो बोल दूं तो जबां जले है

~ गुलज़ार ~

Saturday, February 1, 2014

कोहरा ओढ़े सुबह आयी

कोहरा ओढ़े सुबह आयी
इन पेड़ों के दरमियान
मद्धम हवा बहने लगी
सिरहन बिखेरती यहाँ
रास्ते खामोश हो गए
सुकून में है आसमान

ठिठुर रही है साँसे
जिस्म के इस अलाव में
धड़क रहे दिल धीमे से
बोझिल हुई पलके खाव में
जुबाँ  को प्यास नहीं
जेहेन भी है मीठे तनाव में

गर सुकून बाकी है कहीं
तो बस प्यार के आगोश में
इक चाय कि प्याली  से
कहीं आते  हैं जनाब होश में
गर्माता है  लहू और अरमाँ
चुम्बक बन जाते है जोश में

~ भावार्थ  ~