Tuesday, November 30, 2010

२९ से २९ तक !!!

एक साल एक लम्हा सा था...
हमने हाथ में हाथ लिए...
जिंदगी के कोरे कागज़ पे...
खुशियों के बादल उकेरे...
जिसमें से दिल्लगी और....
एक दूजे को छेड़ने की धुप झांकी...
और फिर जिनमें से हंसी बरसी...
प्यार की उसमें मदहोशी घुली थी...
तुमने चाहत की चुटकी ली...
और मेरी जिंदगी में मिला दी..
तुम्हारे साथ बीते सुनहरे पल ...
तेरी खुशबू से ख़ास लम्हे बन गए ...
और लम्हे डोर में बंधते चले गए...
दिन झट से गुज़र मेरे आस पास से...
और मुझे पता भी न चला...
की ये साल एक लम्हा सा था...

...भावार्थ

( जिंदगी "शोना" के लिए )

Saturday, November 27, 2010

कडवी हकीकत !!!

मुझे मालूम है मतलबी है...
ये दुनिया जो इर्द गिर्द घुली है...
तुम मगर दिल खोल के देते रहो...


आस के बादल जब जब बुलाओगे...
प्यासे के प्यासे ही रह जाओगे...
फुल की तरह खिलते रहो...
हवा की तरह चलते रहो...

मुझे मालूम है मतलबी है...
ये दुनिया जो इर्द गिर्द घुली है...
तुम मगर दिल खोल के देते रहो...

मुट्ठी में रेत जितनी कस के रही है...
हाथ से उतनी ही जोर से ये बही है...
क्यों चाहते हो कुछ बदले में मिले...
क्यों लेने देने के चलते रहे सिलसिले...

मुझे मालूम है मतलबी है...
ये दुनिया जो इर्द गिर्द घुली है...
तुम मगर दिल खोल के देते रहो...

अगर तुझको देने को है जो उसने चुना...
क्यों तमन्नाओ को बदले में तुमने चुना...
गिरने पे भी तुमको न दे सहारा तो क्या...
आपदा में कोई थामे न हाथ तुम्हारा तो क्या...

मुझे मालूम है मतलबी है...
ये दुनिया जो इर्द गिर्द घुली है...
तुम मगर दिल खोल के देते रहो...

हो अकेले तो समझो खुदा साथ है...
समय फेर ले मूह फिर भी उसका हाथ है..
मुस्कुरा , और लबो मुस्कुराहटें ले आ...
है गम में दबा उसके दामन में दे आ...

मुझे मालूम है मतलबी है...
ये दुनिया जो इर्द गिर्द घुली है...
तुम मगर दिल खोल के देते रहो...


...भावार्थ

Sunday, November 21, 2010

अधूरे लोग...

ये दमकते परिवेश में मुस्कुराते लोग...
हाथ में हाथ लिए चहकाते लोग...
चमक से ज्यादा चमकीले नज़र आते लोग...
जो इन तस्वीरों में नज़र आते हैं...
असल में...
जिंदगी में बुझे बुझे से रहते हैं...
अधूरेपन के शिकार बने रहते हैं...
ख़ुद गुमनान इंसान बने रहते हैं....
तभी तो जग को दिखने को...
अपने सच को छुपाने को...
ये एक पल को मुस्कराए हैं...
चमकते नज़र आये हैं...
चहकते नज़र आये हैं...

ये अधूरे लोग...

भावार्थ ...

Saturday, November 20, 2010

रूह !!!

कुछ एक कांच के टुकड़े में थी जिंदगी...
कुछ एक टूटे पत्तों में थी जिंदगी...
रिश्तो के पटल से चित्त की गरहियों तक...
कहीं न कहीं बिखरे थे ये कांच, ये पत्ते...
जिंदगी का कोई एक अक्स लिए...
मेरा ही कोई प्रतिविम्ब लिए...

अपने आपको कभी एक सार नहीं जाना मैंने....
कभी चट्टान तो कभी धुआं खुदको माना मैंने...

और फिर तुम आई...
खयालो के वोह कांच जुड़ से गए...
सोच के वोह पत्ते एक साथ मुड से गए...
ख़ुद को आईने में ढलता हुआ पाया मैंने...

उस आईने को जिसे सब जिंदगी कहते हैं...
जब भी देखता हूँ सिर्फ तुम्हे पाता हूँ...
उसके हर एक कांच में, हर एक पत्ते में...
रूह की तरह बसी हो...

भावार्थ

Thursday, November 18, 2010

अब खुदा भी नहीं रहा शायद !!!

अब खुदा भी नहीं रहा शायद...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं...

पाप में लिपटे ये गोश्त...
इंसान कहते है जिन्हें सब ...
पाप खाते और पाप पीते हैं...
पाप के दल दल में डूबे है सब ...
तेरी याद नहीं इबादत भी नहीं...


अब खुदा भी नहीं रहा शायद ...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं...

बेहतर होता तू कीड़े ही बनाता...
पनपते और मर जाते सब...
तेरे नाम पर लहू तो न बहता ...
पशु तो न फिर कहलाते सब...
तेरा जिक्र नहीं तुझको सजदा भी नहीं...

अब खुदा भी न रहा शायद...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं ...

बालिश्त भर पेट दिया तो ...
फिर मीलो लम्बी चाहते क्यों दी...
जिंदगी बख्शी तुने जिस रूह को...
पाप करने की इनायतें क्यों दी...
तेरा नाम नहीं तुझसे सलाम नहीं...

अब खुदा भी न रहा शायद...
और खुदा का वो खौफ भी नहीं...

भावार्थ

Saturday, November 13, 2010

दौर बदले तो क्या !!!











कोई तो लिहाफ उढ़ा दे मुझे ...
सर्दी से भरे हैं ये काले बादल...
बरस के गए हैं अभी अभी...
लगता है रूह निचोड़ देगी ये सर्दी ...

कोई तो रौशनी दे मुझे...
दिन भर का धुआं धुंध बन गया है...
रास्तो की नसों में धुंध भरी है ...
लगता है लाठी उठानी पड़ेगी चलने के लिए ...

कोई हमदम हो जो साथ चले मेरे ...
ये बूढा अँधेरा जो कौने में बैठा है...
न जाने क्यों घूरता रहता है मुझे...
लगता है सहम के ही जिंदगी गुजरेगी...

कोई तो उम्मीद करना छोड़े...
सजने सवरनेऔर चमकने की...
जैसे जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है...
लगता है यु ही चलना होगा मुझे कई और सदियों तक ...

ठिठुर के...
अँधेरे में..
सहमते हुए...
चलना ही किस्मत है शायद रात की
और शायद औरत की भी !!!

...भावार्थ

Sunday, November 7, 2010

बातियों की जुबान दीपावली !!!

आज बातियों को बतियाते देखा...
उनको भी दीवाली मनाते देखा...
दियो में बसी , तेल में लिपटी...
मद्धम लौ बिखेरती बातियाँ...

हवा के रुख से लहराती एक बोली...
सुना है आज राम घर लौटेंगे...
चैन की रातें सुख के दिन बीतेंगे...
राम राज की कोपले फूटेंगी...
कलयुग का अँधेरा छटेंगा ...
सुख का उजाला हर घर में बंटेगा...

दूसरी बोली तू कितनी भोली है...
कलियुग में भला राम राज कहाँ आएगा...
दिवाली तो व्यापार है बस चलता जायेगा...
कर्ज में दबा किसान लक्ष्मी पूजन क्या करे...
धन तेरस को चावल ले पेट भरे...
या चमकता हुआ नया बर्तन ले...
साबुन से बने दूध की मिठाई है बनी...
कैसे लक्ष्मी-गजानन उसको खाएं...
व्यापार की तेज आंधी चल रही है...
तू ही बता ये लोग कब तक हम को जलाएं...

और सिर्फ एक रात की बात है...
सुबह तक जी गयी तो खुशनसीब बन जाओगी ...
वरना अपने आप को किसी कूडे दान में पाओगी ...


...भावार्थ