जिंदगी भर मैंने सिर्फ रिश्ते तराशे हैं...
हाथ छिल गए मेरे उकेरते उकेरते ...
वक़्त की हथोडी और प्यार की छैनी...
चारों पहर हवा की तरह चलायी है मैंने ...
एक एक मुजस्समा मुझे जाँ से प्यारा था...
हर एक रिश्ते का चेहरा मैंने ऐसे बनाया था...
मगर मैंने जो भी तराशा शायद सही जगह नहीं रखा...
मैं बुत बनाने मैं इतना मशगूल था...
पता ही ना चला कहाँ रख दिया जो भी तराशा मैंने...
और आज जब उँगलियाँ औजार उठा नहीं सकती...
और पैर मेरे धड को सह नहीं सकते...
सोचता हूँ कोई मुजस्समा आये और थाम ले...
पीछे मुड कर भी देखा कोई नहीं है दूर दूर तक...
तनहा बैठा हूँ वक़्त की बेंच पे...
यही सोच कर की काश कोई बुत आये और साथ ले चले...
मगर मैं भी कितना बेवकूफ हूँ...
जिंदगी भर मुजस्समे तराशे मैंने...
और बुत भी कहीं चलती है भला...
काश जाँ भी फूंकी होती इनमें ...
तो शायद मैं इतना तनहा न होता...
शायद !!!
...भावार्थ
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