उन गीतों के,
उन बातों के,
अल्फाजों के
कुछ
काले-काले साए हैं।
अपनी सफ़ेद हथेलियों
पे
जब तुमको ढूंढा करती हूँ,
ये तीखी लकीरें
हाथों में
गहरे खोदती जाती हैं,
फिर तकदीरें चो-चो कर
खोखला सा
कर जाती हैं,
और
हाथों में
जो बसता है
जो बचता है ,
ये
काले-काले साए हैं।
कभी कभी
शाम के ख्वाब
रेत
की तरह जो
उड़ने लगते हैं
आँखों में सूखे पत्ते
बेलों से चढ़ने लगते हैं,
और काली पुतली आँखों की,
एकदम पीली पड़ जाती है,
ये
उनमें भी भर जाते हैं,
फिर सारे ख्वाब एक-एक करके,
दम घुटने से मर जाते हैं,
ये
काले-काले साए हैं।
क्या तुमको भी ये सताते हैं,
जब
सूनी झुलसती रातों में
अपना भी रंग नहीं दिखता,
तब अँधेरे से गहरे
ये
चीखते चिल्लाते से हुए
हर और
टूटते रहते हैं,
कानों में धंसते जाते हैं,
ये काले-काले साए हैं।
उन बातों के
उन गातों के
अल्फाजों के
ये.........
एहसासों के कारवां कुछ अल्फाजो पे सिमेटने चला हूँ। हर दर्द, हर खुशी, हर खाब को कुछ हर्फ़ में बदलने चला हूँ। न जाने कौन सी हसरत है इस मुन्तजिर भावार्थ को।अनकहे अनगिनत अरमानो को अपनी कलम से लिखने चला हूँ.....
Friday, July 31, 2009
Thursday, July 23, 2009
न था कुछ तो खुदा था,
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझे को होने ने, न होता "मैं " तो क्या होता
हुआ जब गम से यूँ बेहिस तो गम क्या सर के कटाने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़नाजो पर धरा होता
हुई मुद्दत के 'ग़लिब' मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यू.न होता तो क्या होता
...मिर्जा गालिब
डुबोया मुझे को होने ने, न होता "मैं " तो क्या होता
हुआ जब गम से यूँ बेहिस तो गम क्या सर के कटाने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़नाजो पर धरा होता
हुई मुद्दत के 'ग़लिब' मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यू.न होता तो क्या होता
...मिर्जा गालिब
Thursday, July 16, 2009
कुछ !!!
मैं आस उसकी यु संजोता रहा...
रेत में पानी के बीज बोता रहा...
दिल्लगी खुदा ने कुछ ऐसी की ...
अपनों को इक इक कर खोता रहा...
वफ़ा में उसकी थी एक गाँठ सी...
पाक रिश्ते के तले में रोता रहा...
रास्ते बोलते रहे मैंने सुना ही नहीं...
मैं मंजिलो पे तन्हाई ढोता रहा...
जब ख़ाक हो चुकी हर चाह थी ...
खुदा दिल में अरमा पिरोता रहा..
...भावार्थ
रेत में पानी के बीज बोता रहा...
दिल्लगी खुदा ने कुछ ऐसी की ...
अपनों को इक इक कर खोता रहा...
वफ़ा में उसकी थी एक गाँठ सी...
पाक रिश्ते के तले में रोता रहा...
रास्ते बोलते रहे मैंने सुना ही नहीं...
मैं मंजिलो पे तन्हाई ढोता रहा...
जब ख़ाक हो चुकी हर चाह थी ...
खुदा दिल में अरमा पिरोता रहा..
...भावार्थ
Wednesday, July 15, 2009
अगर !!!
काली रात अगर ढय जाए तो क्या होगा...
आसमान अगर बह जाए तो क्या होगा...
धरती ने खीच रखे है हर चीज़ दुनिया की...
समंदर अगर रेत बह जाए तो क्या होगा...
चमक इन तारो से है या सूरज से सबकी...
ये सूरज साँस बन के रह जाए तो क्या होगा...
दीवारें हो तो बस इस सुहानी हवा की हों...
दर्द अगर फूकं से उड़ जाए तो क्या होगा...
खुशी के गुच्छे बाज़ार में मिलने लगे बस...
और चाहते खिलोने बन जाए तो क्या होगा...
अपने पलक झपकते आपको थाम ले आकर...
आँखें मोहब्बत की बन जाए तो क्या होगा...
खाब हर एक हकीकत की रूह बन जाए...
जिंदगी अगर खाब बन जाए तो क्या होगा...
भावार्थ
आसमान अगर बह जाए तो क्या होगा...
धरती ने खीच रखे है हर चीज़ दुनिया की...
समंदर अगर रेत बह जाए तो क्या होगा...
चमक इन तारो से है या सूरज से सबकी...
ये सूरज साँस बन के रह जाए तो क्या होगा...
दीवारें हो तो बस इस सुहानी हवा की हों...
दर्द अगर फूकं से उड़ जाए तो क्या होगा...
खुशी के गुच्छे बाज़ार में मिलने लगे बस...
और चाहते खिलोने बन जाए तो क्या होगा...
अपने पलक झपकते आपको थाम ले आकर...
आँखें मोहब्बत की बन जाए तो क्या होगा...
खाब हर एक हकीकत की रूह बन जाए...
जिंदगी अगर खाब बन जाए तो क्या होगा...
भावार्थ
Monday, July 13, 2009
मेरा हमसफर !!!
धुंधली सी ये आस है....
शायद वो मेरे पास है...
मेरी यादो में महफूज़...
मेरा हमसफ़र....२
उसकी बाहों के निशाँ हैं ....
मेरे दिल के दरमियाँ हैं ....
मेरे आगोश में महफूज़....
मेरा हमसफ़र...२
वो शख्स कुछ ऐसा है....
वो मेरे अक्स जैसा है...
इन आयिनो में महफूज़...
मेरा हमसफ़र...२
जुदा हो कर भी जुदा नहीं...
खुदा हो कार भी खुदा नहीं..
मेरे ताबीज़ में महफूज़...
मेरा हमसफ़र...२
भावार्थ
Saturday, July 4, 2009
यु तो !!!
अश-आर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक की हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आंखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख्स कि यादों को भुलाने के लिए हैं...
जाँ निशाँ अख्तर ...
सिला !!!
मुकम्मल जहाँ ढूढ़ते ढूढ़ते...
ख़ुद से महरूम हो चुका हूँ...
आशियाँ बसाने निकला था....
हर एक तिनका खो चुका हूँ...
तलब थी मंजिले पाने की...
कब की ख़ाक हो चुकी है...
आग थी कर गुजरने की...
वो कब की राख हो चुकी है...
एक दिया था मोहब्बत का ...
बेवफाई की आंधी ने बुझा दिया...
उसकी यादो की लौ बची थी....
उसको मैंने तन्हाई में गुमा दिया...
कतरा कतरा जिंदगी अब राहो में....
और जेहेन मेरा तरस रहा है....
प्यास लबो पे आ कर मिट चुकी...
और ये बादल अब बरस रहा है...
भावार्थ...
ख़ुद से महरूम हो चुका हूँ...
आशियाँ बसाने निकला था....
हर एक तिनका खो चुका हूँ...
तलब थी मंजिले पाने की...
कब की ख़ाक हो चुकी है...
आग थी कर गुजरने की...
वो कब की राख हो चुकी है...
एक दिया था मोहब्बत का ...
बेवफाई की आंधी ने बुझा दिया...
उसकी यादो की लौ बची थी....
उसको मैंने तन्हाई में गुमा दिया...
कतरा कतरा जिंदगी अब राहो में....
और जेहेन मेरा तरस रहा है....
प्यास लबो पे आ कर मिट चुकी...
और ये बादल अब बरस रहा है...
भावार्थ...
ये ज़िन्दगी !!!
ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से निकल रही है
तुम्हारे लफ्जों में ढल रही है
ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूं ही शक्लें
बदल रही है
बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
कलम उठाओ या सर झुकाओ
तुम्हारी आंखों की रौशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा...
निदा फाजली...
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से निकल रही है
तुम्हारे लफ्जों में ढल रही है
ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूं ही शक्लें
बदल रही है
बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
कलम उठाओ या सर झुकाओ
तुम्हारी आंखों की रौशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा...
निदा फाजली...
सौतेले सपने !!!
जिंदगी जब आधी गुजर जायेगी...
मुझे कुछ एक ऐसा पाएगी...
एक छोटे से घर के आस पास मेरा एक लॉन होगा...
जिसमें रोज सुबह सूरज आ कर दस्तक देता हो...
अखबार वाला, दूध वाला उधर से गुजरता हो...
लोग कहते हो कोई भला मानुस यहाँ रहता है...
घर मैं हर एक चीज़ जरूरी हो...
पानी की बिजली की न कोई मजबूरी हो...
लॉन से लगा छोटा सा बाग़ हो...
जहाँ दिन मैं गेंदे के और रात को चमेली महके...
घर के पीछे जहाँ कपड़े सूखते हों कोयल चहके...
पपीते के फल दीवारों से लटके आयें...
कुछ दोस्त हर महीने मिलने आयें...
खूब देर तक उनसे सुने कुछ उनको सुनाये...
कुछ एक गीत लिखूं कुछ एक कहानी बन निकले...
चाय की प्याली से बात मीठी निराली निकले...
हर मंगल मदिर जाएँ, प्रसाद बाँटें प्रसाद खाएं...
आपा धापी दूर दूर तक न हो...
दफ्तर चार कदम पर पहुंचूं...
सब लोग उठ खड़े हो जायें...
उनसे हल चाल पूंछूं उनके गम लूँ ...
अपने काम पर पूरा मन दूँ....
न बुरा करून, न बुरा सुनूं...
बुराई से जरा दूर ही रहूँ...
सुबह के चार बज गए और नींद खुल गई...
खाब के खिलोने कहा खो गए...
ये सपने थे जो सौतेले हो गए....
...भावार्थ
हकीकत मैं चार बजे उठ कर जाता हूँ...
पानी के नल न निकला जाएँ उसे भर लाता हूँ...
घर के दो कमरों मैं सात लोग सो रहे हैं...
घर के दरवाजे पे रास्ता बहता है...
उसी खूँटी पे नल गढा है....
पानी के तीन चार कनस्तर कमरे तक चिपके बैठे हैं...
दूसरे कमरे के अगले हिस्से मैं रसोई गैस है...
तवे और बर्तन एक के ऊपर एक कर रखे हैं...
आटे के डिब्बे पे सब्जी की टोकरी है...
शुकर है गैस के आस पास दीवार है...
जो चीज़ टंग सकती थी टंगी है...
करची, चम्मच,लाईटर, छलनी वहीँ टंगी हैं...
हर रोज सुबह फोल्डिंग पलंग उठता है ...
तब वहां रसोई घर का सामान बिछता है...
बस एक पूजा घर है जिसे कोई नहीं छेडता...
चाट न होती तो बड़ी मुश्किल होती...
हर वो चीज़ जो कभी कभी जरूरत की है...
वहां न होती तो फ़िर कहाँ होती...
सात बजे जब पहली बस पकड़ता हूँ...
तब गली मैं कोई नहीं जागता...
अनजान मुसाफिर की तरह जीता हूँ...
आधी नींद मैं दफ्तर पहुँचता हूँ...
हर कोई अपने मैं गुम सा है...
मैं कुछ एक फाईल को पलटता हूँ ...
फूहड़ चुटकुलों से बचता बचता...
अपना बचा हुआ समय काटता हूँ...
टूटा हुआ छाता और टिफिन तांगता हूँ...
और निकल पड़ता हूँ तीन घंटे लंबे रास्ते पे...
जो मुझे घर ले कर जाता है...
रात कब की हो चुकी होती है जब पहुँचता हूँ...
मेरी पत्नी की आँखें होती हैं मेरे लिए बस...
वो हाल पूछ कर खाना खिलाती है...
और धीमे धीमे पंखा हिलती है...
कहती है बिल इस महीने बहुत आया है...
सोने के लिए छत पर बिस्तर बिछाया है...
और हकीकत से हम रू-भी-रू हो गए...
वो जो सपने थे सब सौतेले हो गए...
...भावार्थ
मुझे कुछ एक ऐसा पाएगी...
एक छोटे से घर के आस पास मेरा एक लॉन होगा...
जिसमें रोज सुबह सूरज आ कर दस्तक देता हो...
अखबार वाला, दूध वाला उधर से गुजरता हो...
लोग कहते हो कोई भला मानुस यहाँ रहता है...
घर मैं हर एक चीज़ जरूरी हो...
पानी की बिजली की न कोई मजबूरी हो...
लॉन से लगा छोटा सा बाग़ हो...
जहाँ दिन मैं गेंदे के और रात को चमेली महके...
घर के पीछे जहाँ कपड़े सूखते हों कोयल चहके...
पपीते के फल दीवारों से लटके आयें...
कुछ दोस्त हर महीने मिलने आयें...
खूब देर तक उनसे सुने कुछ उनको सुनाये...
कुछ एक गीत लिखूं कुछ एक कहानी बन निकले...
चाय की प्याली से बात मीठी निराली निकले...
हर मंगल मदिर जाएँ, प्रसाद बाँटें प्रसाद खाएं...
आपा धापी दूर दूर तक न हो...
दफ्तर चार कदम पर पहुंचूं...
सब लोग उठ खड़े हो जायें...
उनसे हल चाल पूंछूं उनके गम लूँ ...
अपने काम पर पूरा मन दूँ....
न बुरा करून, न बुरा सुनूं...
बुराई से जरा दूर ही रहूँ...
सुबह के चार बज गए और नींद खुल गई...
खाब के खिलोने कहा खो गए...
ये सपने थे जो सौतेले हो गए....
...भावार्थ
हकीकत मैं चार बजे उठ कर जाता हूँ...
पानी के नल न निकला जाएँ उसे भर लाता हूँ...
घर के दो कमरों मैं सात लोग सो रहे हैं...
घर के दरवाजे पे रास्ता बहता है...
उसी खूँटी पे नल गढा है....
पानी के तीन चार कनस्तर कमरे तक चिपके बैठे हैं...
दूसरे कमरे के अगले हिस्से मैं रसोई गैस है...
तवे और बर्तन एक के ऊपर एक कर रखे हैं...
आटे के डिब्बे पे सब्जी की टोकरी है...
शुकर है गैस के आस पास दीवार है...
जो चीज़ टंग सकती थी टंगी है...
करची, चम्मच,लाईटर, छलनी वहीँ टंगी हैं...
हर रोज सुबह फोल्डिंग पलंग उठता है ...
तब वहां रसोई घर का सामान बिछता है...
बस एक पूजा घर है जिसे कोई नहीं छेडता...
चाट न होती तो बड़ी मुश्किल होती...
हर वो चीज़ जो कभी कभी जरूरत की है...
वहां न होती तो फ़िर कहाँ होती...
सात बजे जब पहली बस पकड़ता हूँ...
तब गली मैं कोई नहीं जागता...
अनजान मुसाफिर की तरह जीता हूँ...
आधी नींद मैं दफ्तर पहुँचता हूँ...
हर कोई अपने मैं गुम सा है...
मैं कुछ एक फाईल को पलटता हूँ ...
फूहड़ चुटकुलों से बचता बचता...
अपना बचा हुआ समय काटता हूँ...
टूटा हुआ छाता और टिफिन तांगता हूँ...
और निकल पड़ता हूँ तीन घंटे लंबे रास्ते पे...
जो मुझे घर ले कर जाता है...
रात कब की हो चुकी होती है जब पहुँचता हूँ...
मेरी पत्नी की आँखें होती हैं मेरे लिए बस...
वो हाल पूछ कर खाना खिलाती है...
और धीमे धीमे पंखा हिलती है...
कहती है बिल इस महीने बहुत आया है...
सोने के लिए छत पर बिस्तर बिछाया है...
और हकीकत से हम रू-भी-रू हो गए...
वो जो सपने थे सब सौतेले हो गए...
...भावार्थ
Thursday, July 2, 2009
साँप !!!
मेरी जिंदगी में साँप हावी रहा ...
इसका फन उठता रहा और में बहता रहा...
मुझे कमजोर होने का एहसास होता रहा...
की जितना दूध इसको पिलाओगे...
प्यास को इसकी उतना ही बढाओगे...
कई बार जहर इसका जेहेन तक आया है....
मेरे उसूलों को इसने कई बार मिटाया है...
इक जंग थी वो जब में जवा था...
इसका सुरूर इस कदर चढा था...
रात बीन बन कर इसको लाती थी....
बेवजह मेरी नीयत बिगड़ जाती थी...
तन्हाई में मुझे अक्सर काटा इसने...
सोच और खयालो को ढाका इसने...
मैं और साँप कितनी रात लिपटे रहे...
जहरीला जामा मुझपे लाजवाबी रहा...
जिंदगी मैं साँप मुझपे इसकदर हावी रहा...
भावार्थ...
इसका फन उठता रहा और में बहता रहा...
मुझे कमजोर होने का एहसास होता रहा...
की जितना दूध इसको पिलाओगे...
प्यास को इसकी उतना ही बढाओगे...
कई बार जहर इसका जेहेन तक आया है....
मेरे उसूलों को इसने कई बार मिटाया है...
इक जंग थी वो जब में जवा था...
इसका सुरूर इस कदर चढा था...
रात बीन बन कर इसको लाती थी....
बेवजह मेरी नीयत बिगड़ जाती थी...
तन्हाई में मुझे अक्सर काटा इसने...
सोच और खयालो को ढाका इसने...
मैं और साँप कितनी रात लिपटे रहे...
जहरीला जामा मुझपे लाजवाबी रहा...
जिंदगी मैं साँप मुझपे इसकदर हावी रहा...
भावार्थ...
पाप धुल गए !!!
आज फिर दर्द उठा...आज फिर माँ का एहसास हुआ...
गोवेर्धन की परिक्रमा लगाते छोटे छोटे पत्थर बहुत चुभे...
मगर कलेजे में एक नन्हा सा पत्थर मेरे सब पाप धुल गया...
इतने आंसू बहे की लगा ये समंदर भी मेरे भीतर रहता था...
माँ ने हाल क्या पूछ लिया छलक पड़ा बस 'उबाल' की तरह....
नसों मैं दर्द बहे तो लगता है कोई अपना साथ हो...
दुनिया के दर्द को तनहा सह सकते हो मगर इसे नहीं....
कोई हाथ सहलाता रहे, बालो मैं उँगलियाँ फेरता रहे...
और जैसे दर्द से ध्यान ही हट जाए कुछ एक पल को...
मगर चट्टान भी आख़िर पिघलती है...
तन्हाई के लावे मैं दर्द रफ़्तार पाता है...
और कलेजे की नस आँखों मैं असर छोड़ जाती है...
मैं करवटे बदलते हुए , अपनों को तरसते हुए ...
शुक्र गुजार था खुदा का की चलो 'पाप' धुल गए...
भावार्थ
गोवेर्धन की परिक्रमा लगाते छोटे छोटे पत्थर बहुत चुभे...
मगर कलेजे में एक नन्हा सा पत्थर मेरे सब पाप धुल गया...
इतने आंसू बहे की लगा ये समंदर भी मेरे भीतर रहता था...
माँ ने हाल क्या पूछ लिया छलक पड़ा बस 'उबाल' की तरह....
नसों मैं दर्द बहे तो लगता है कोई अपना साथ हो...
दुनिया के दर्द को तनहा सह सकते हो मगर इसे नहीं....
कोई हाथ सहलाता रहे, बालो मैं उँगलियाँ फेरता रहे...
और जैसे दर्द से ध्यान ही हट जाए कुछ एक पल को...
मगर चट्टान भी आख़िर पिघलती है...
तन्हाई के लावे मैं दर्द रफ़्तार पाता है...
और कलेजे की नस आँखों मैं असर छोड़ जाती है...
मैं करवटे बदलते हुए , अपनों को तरसते हुए ...
शुक्र गुजार था खुदा का की चलो 'पाप' धुल गए...
भावार्थ
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