Monday, January 28, 2008

भूल जाओ तुम उस अनकहे रिश्ते को शाकी।

भूल जाओ तुम उस अनकहे रिश्ते को शाकी।
बंदिशें इतनी कि चाह कर भी तुम्हे अब कभी ना याद करंगे।

क्यों लगता है तुमको कि बिना तेरे में सपने बुन पाऊँगा।
अपने सब अरमानों को आज वजूद से फैंक बाहर करंगे।

महलों के ख्वाब सब तेरे साथ देखे थे मैंने मेरे हमदम ।
अब अनजान गल्यिओं में खुद को हम आबाद करंगे।

नाम आएगा मेरा तो बस तेरे साथ ही आएगा वरना।
इस भीड़ में खुद के नाम को हम कहीं अब गुमनाम करंगे।

भूल जाओ तुम उस अनकहे रिश्ते को शाकी।

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