Saturday, July 4, 2009

सौतेले सपने !!!

जिंदगी जब आधी गुजर जायेगी...
मुझे कुछ एक ऐसा पाएगी...
एक छोटे से घर के आस पास मेरा एक लॉन होगा...
जिसमें रोज सुबह सूरज आ कर दस्तक देता हो...
अखबार वाला, दूध वाला उधर से गुजरता हो...
लोग कहते हो कोई भला मानुस यहाँ रहता है...
घर मैं हर एक चीज़ जरूरी हो...
पानी की बिजली की न कोई मजबूरी हो...
लॉन से लगा छोटा सा बाग़ हो...
जहाँ दिन मैं गेंदे के और रात को चमेली महके...
घर के पीछे जहाँ कपड़े सूखते हों कोयल चहके...
पपीते के फल दीवारों से लटके आयें...
कुछ दोस्त हर महीने मिलने आयें...
खूब देर तक उनसे सुने कुछ उनको सुनाये...
कुछ एक गीत लिखूं कुछ एक कहानी बन निकले...
चाय की प्याली से बात मीठी निराली निकले...
हर मंगल मदिर जाएँ, प्रसाद बाँटें प्रसाद खाएं...
आपा धापी दूर दूर तक न हो...
दफ्तर चार कदम पर पहुंचूं...
सब लोग उठ खड़े हो जायें...
उनसे हल चाल पूंछूं उनके गम लूँ ...
अपने काम पर पूरा मन दूँ....
न बुरा करून, न बुरा सुनूं...
बुराई से जरा दूर ही रहूँ...
सुबह के चार बज गए और नींद खुल गई...
खाब के खिलोने कहा खो गए...
ये सपने थे जो सौतेले हो गए....

...भावार्थ

हकीकत मैं चार बजे उठ कर जाता हूँ...
पानी के नल न निकला जाएँ उसे भर लाता हूँ...
घर के दो कमरों मैं सात लोग सो रहे हैं...
घर के दरवाजे पे रास्ता बहता है...
उसी खूँटी पे नल गढा है....
पानी के तीन चार कनस्तर कमरे तक चिपके बैठे हैं...
दूसरे कमरे के अगले हिस्से मैं रसोई गैस है...
तवे और बर्तन एक के ऊपर एक कर रखे हैं...
आटे के डिब्बे पे सब्जी की टोकरी है...
शुकर है गैस के आस पास दीवार है...
जो चीज़ टंग सकती थी टंगी है...
करची, चम्मच,लाईटर, छलनी वहीँ टंगी हैं...
हर रोज सुबह फोल्डिंग पलंग उठता है ...
तब वहां रसोई घर का सामान बिछता है...
बस एक पूजा घर है जिसे कोई नहीं छेडता...
चाट न होती तो बड़ी मुश्किल होती...
हर वो चीज़ जो कभी कभी जरूरत की है...
वहां न होती तो फ़िर कहाँ होती...
सात बजे जब पहली बस पकड़ता हूँ...
तब गली मैं कोई नहीं जागता...
अनजान मुसाफिर की तरह जीता हूँ...
आधी नींद मैं दफ्तर पहुँचता हूँ...
हर कोई अपने मैं गुम सा है...
मैं कुछ एक फाईल को पलटता हूँ ...
फूहड़ चुटकुलों से बचता बचता...
अपना बचा हुआ समय काटता हूँ...
टूटा हुआ छाता और टिफिन तांगता हूँ...
और निकल पड़ता हूँ तीन घंटे लंबे रास्ते पे...
जो मुझे घर ले कर जाता है...
रात कब की हो चुकी होती है जब पहुँचता हूँ...
मेरी पत्नी की आँखें होती हैं मेरे लिए बस...
वो हाल पूछ कर खाना खिलाती है...
और धीमे धीमे पंखा हिलती है...
कहती है बिल इस महीने बहुत आया है...
सोने के लिए छत पर बिस्तर बिछाया है...
और हकीकत से हम रू-भी-रू हो गए...
वो जो सपने थे सब सौतेले हो गए...

...भावार्थ

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