न सिर्फ इसे आह की हवा कहिये...
न सिर्फ इसे चाक-ए-दवा कहिये...
जो उठ रहा है ये धुआं इर्द गिर्द...
इसे सिर्फ आग-ए-इन्कलाब कहिये...
आज हुकुमरान की कैद में है आज़ादी...
खुले घूमते है कातिल, जेल में है खादी...
अब तो दिल बहलाने को फहराते है तिरंगा ये...
चंद मुट्ठियों ने मसली है करोड़ों कीआबादी...
इधर लहू उबला तो उधर जमा सा है...
इधर जोश तो उधर ग़मगीन शमा सा है...
आज सडको पे कदमो का जाम है लगा ...
इधर शेर उमड़े, उधर चूहों का झुण्ड जमा सा है...
आज है इतिहास को दोहराने की तयारी...
मशाल बन कर उठेगी ये चिंगारी..
हर उम्र शामिल है इस इन्कलाब में...
नौ जवां कंधे पे आई बूढ़े अन्ना की सवारी ...
भावार्थ
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