
रेगिस्तान ने आसाम की तरफ देखा...
तो बादलों पे रेत जम गयी...
हवा के दांत किर-किरे हो गए...
तारों को कुछ दिखाई नहीं देता...
सूरज चाँद सा फीका नज़र आता है...
मगर ये जो लकीरें सी उडती नज़र आती है...
ये क्या हैं...?
कहीं सरहद तो नहीं उड़ आई कहीं...
तपते धधकते रेत के साथ ...
साल बीत गए मगर बंटवारे की लकीर...
उतनी की उतनी ही गहरी रही...
रेत उड़ता रहा इनके इर्द गिद ...
पर बिलकुल बेअसर जहर की तरह...
शायद ये तूफ़ान ही मिटा दे इन लकीरों को ....
जमी से मिटा कर न सही ...
हवा में उड़ा कर ही सही ...
...भावार्थ
2 comments:
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
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