Wednesday, April 14, 2010

सिक्के !!!


गुल्लक रीती करो री लाडो...
"देहात" के सिक्के अब चलत नाही हैं...

"शहर"के नोट की बरसात है इतनी....
लोहे को अब कोई पूछत नाही हैं...

हर एक सिक्का याद थी रिश्ते की...
चोकलेट मिलत है सिक्का कोई देवत नाही हैं....

एक रुपये मैं भर भर पेट थे खाते...
अब सेकड़ो से भी कुछ होवत नाही है...

जब जब रूठे सिक्के थे मनाते...
अब उस प्यार से कोई मनावत नाही है...

स्कूल थे जाते तो हर रोज एक सिक्का...
अब उस ख़ुशी को कोई जीवत नाही है...

गुल्लक रीती करो री लाडो...
"देहात" के सिक्के अब चलत नाही है...

...भावार्थ

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।