Sunday, November 24, 2013

नसीब नहीं

गाँव !!!

कुँए कि मुडगेरी पे बैठा हूँ
पेट भर क्या ओख भर पानी  नसीब नहीं

कोल्हू थक गया बैलों से पहले
फिर भी गुड को मिठास नसीब नहीं

मुझ लुहार के  घर में भट्टी है
ढकने को छत क्या छप्पर नसीब नहीं

अब सिर्फ गाव में मानुष बचे हैं
भूख मिटाने को बटेर क्या अनाज नसीब नहीं

~  भावार्थ ~
२४ नवंबर २०१३ 

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