इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
दहलीज़ बनायीं घरों में फिर
बंद कर बैठे हैं दिल अपने
मज़हब का तेज़ाब छिड़क
झुलसा कर बैठे हैं सपने
एक रंग के हम दिखने वाले
रंगों से बँटे हैं फिर जाने क्यों
इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
सरहद खींचे मुल्क के तन पे
हर एक पडोसी है दुश्मन
उनको दिखाते अपने जलवे
पर इंसान ही मरते हैं पल छिन
मिटटी से बने हम पुतले
तारों से बँटे हैं फिर जाने क्यों
इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
दहलीज़ बनायीं घरों में फिर
बंद कर बैठे हैं दिल अपने
मज़हब का तेज़ाब छिड़क
झुलसा कर बैठे हैं सपने
एक रंग के हम दिखने वाले
रंगों से बँटे हैं फिर जाने क्यों
इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
हर एक पडोसी है दुश्मन
उनको दिखाते अपने जलवे
पर इंसान ही मरते हैं पल छिन
मिटटी से बने हम पुतले
तारों से बँटे हैं फिर जाने क्यों
इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
है खाब एकसा है चाह एकसी
इंसा के जेहेन में पलने वाली
है दर्द एकसा है चीख एकसी
मौत के उर से उठने वाली
आईने के कर के टुकड़े फिर
अक्स ये बँटे हैं फिर जाने क्यों
इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ
भावार्थ
२२/११/२०१५