मैं हूँ इक ऐसी नाव में सवार...
जिसमें लहरें है मेरी पतवार...
खानाबदोश साहिल से में जब निकली ...
सिर्फ खाब के तिनके थे मेरे पास..
वो खाब जो डूबते सूरज के तले...
जेहेन में उकेरे थे मैंने...
किसी सा बन जाने के...
किसी ख़ास को पाने के...
दूर तलक कहीं जाने के...
वो मुट्ठी भर खाब ले आये साहिल तक...
और में उसी खुमार में...
जा बैठी उस टूटी सी अधमरी नाव में...
ये सोच कर कि खाब सच होंगे...
मगर जब होश पर लहरों ने दस्तक दी..
तो लगा...
में हूँ एक ऐसी नाव में सवार..
जिसमें सिर्फ लहरें हैं पतवार..
और ऐसे रास्ते कभी मंजिल तक नहीं जाते...
रह जाते हैं तन्हाई की गिरिफ्त में...
भावार्थ...