Wednesday, April 15, 2015

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ
इस धुप से बचने को मुट्ठी भर छाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

कहीं ले न उड़े मुझको ये शोहरत की हवा
जानता हूँ ये इसलिए जमीं पे पाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

हर चीज़ का आराम मुझे मगर कोई भूखा भी है
यही सोच कर अपने निवालों का हिसाब रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

तेरा दर्द भी कितना अदना है है मेरे  दर्द के आगे
भीड़ में रोने की खातिर मैं तन्हाई पास रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

मेरी तकदीर भी है रेत  के साहिल की तरह
मिटना है जिस दरिया में उसी का ख्याल रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ
इस धुप से बचने को मुट्ठी भर छाँव रखता हूँ

भावार्थ

१५/०४/२०१५

No comments: