Sunday, April 26, 2015

ख़ामोशी तेरे कितने रंग ...

ख़ामोशी
तेरे कितने रंग

ख़ामोशी हया में लिपटी हो तो
इकरार भी हो सकती है
और जो  देर तक ठहर जाए तो
इंकार भी हो सकती है…

नए इश्क़ में ख़ामोशी
जिस्म का तूफ़ान हो सकती है
और जो हो रिश्ते में ख़ामोशी तो
उसका अंजाम  हो सकती है

ख़ामोशी जेहेन की हो तो
खुद से तकरार हो सकती है
ख़ामोशी अपनों की हो तो
दिलो की दीवार हो सकती है

ख़ामोशी परिंदो की हो तो
ऊँची परवाज़  हो सकती है
खमोशी रात की हो तो
खौफ का आगाज़ हो सकती है

ख़ामोशी अहंकार की हो
तो जूनून हो सकती है
ख़ामोशी आत्मसार की हो
तो सुकून हो सकती है

ख़ामोशी निगाहों की हो तो
वो एहतराम हो सकती है
ख़ामोशी दिल की हो तो
मौत का पैगाम हो सकती है

ख़ामोशी आवाम की हो तो
हुक्मरान का जुल्म हो सकती है
ख़ामोशी इबादतगाह की हो तो
उस खुदा का इल्म हो सकती है


ख़ामोशी
तेरे कितने रंग

भावार्थ 
२६/०४/२०१५ 


Saturday, April 25, 2015

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

उमड़ पड़े दरिया तो यहाँ दर्द बहे
फट  पड़े ये धरती तो यहाँ दर्द रहे
महफूज़ सूरत नहीं नज़र में यहाँ

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

लाश नहीं यहाँ तो खाब दफ़न हैं
धरा सेज और आसमाँ  कफ़न हैं
इन्सां को गिद्ध हैं नोचें फिरते यहाँ

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

रूह बेचैन जिस्म में बेकरारी है
उम्र हमने इस तरह  गुज़ारी  है
जिंदगी मौत में है क्या फर्क यहाँ 

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

भावार्थ
२५/०४/२०१४
नेपाल त्रासदी को समर्पित… 

तुझे जिसकी तलाश है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी
वो तो बस  तेरे  पास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

इश्क़ क्या है गुबार है  दिल का
फितूर ये कुछ ख़ास  है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

हर कोई आम है मेरे रिश्ते में
जो निभाए वही ख़ास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

किसने देखा है वो नूर-ए-इलाही
वो तो बस एक एहसास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

हर जिंदगी का अंजाम मौत है
इस कदर क्यों बदहवास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी
वो तो बस  तेरे  पास है साकी 

भावार्थ

Wednesday, April 15, 2015

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ
इस धुप से बचने को मुट्ठी भर छाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

कहीं ले न उड़े मुझको ये शोहरत की हवा
जानता हूँ ये इसलिए जमीं पे पाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

हर चीज़ का आराम मुझे मगर कोई भूखा भी है
यही सोच कर अपने निवालों का हिसाब रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

तेरा दर्द भी कितना अदना है है मेरे  दर्द के आगे
भीड़ में रोने की खातिर मैं तन्हाई पास रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

मेरी तकदीर भी है रेत  के साहिल की तरह
मिटना है जिस दरिया में उसी का ख्याल रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ
इस धुप से बचने को मुट्ठी भर छाँव रखता हूँ

भावार्थ

१५/०४/२०१५

Sunday, April 12, 2015

जीने वाले बता क्या वजह जीने की

जीने वाले बता क्या वजह जीने की 
वो तो खामोश है एक बुत की तरह

कभी सोचा नहीं कभी समझा नहीं
जिंदगी तो लगे एक जुनूँ की तरह

एक कतरा पाने को  खो दिया दरिया भी
कितने नादान हैं हम बच्चे की तरह

भावार्थ
११/०४/२०१५