Saturday, March 28, 2015


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर  गयी 
दोनों को इक ही  अदा में रज़ामंद कर गयी 

शक हो गया है सीना खुश लज़्ज़त -इ-फराज 
तकलीफ-इ-पर्दादारी-ए ज़ख्म-ए-जिगर गयी 


वो बड़ा-ए-शबाना की सरमस्तियां कहाँ है 
उठिए बस अब तक लज़्ज़त-ए- खाब-इ शहर गयी 

उड़ती फिर है ख़ाक मेरी कु-ए-यार में 
बारे अब ए  हवा हवस-ए बाल-ओ-पार गयी 

देखो तो ये दिल फरेबी-ए- अंदाज़-ए -नक्श-ए -पा 
मौज-ए-खिरम-ए-यार भी क्या गुल कुतर गयी 


हर बुला हवस ने हुस्न परस्ती शिअर की 
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गयी 

नज़र ने भी काम किया बन  नक़ाब का 
मस्ती से हर निगाह तेरे रुख पर बिखर गयी 

फ़र्दा-ओ-दिन का तफर्रुका एक मर मिट गया 
कल तुम गयी की हम पे क़यामत गुज़र गयी 

मार  ज़माने ने असद उल्लाह खान  तुम्हें 
वो वाल-वले कहाँ वो जवानी किधर गयी 

मिर्ज़ा ग़ालिब !!!



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