Thursday, December 31, 2015

खुद से वाकिफ

माफ़ करना इस दुनिया का अभी इल्म नहीं है मुझे
अभी सिलसिला शुरू हुआ  है खुद से वाकिफ होने का.... 

देर तक सोने से बेहतर है देर तक जागना
हर एक खाब जो देखा मुझको याद रह गया


भावार्थ
०१/०१/२०१६

ग़ालिब का एहसास !!!

ग़ालिब का एहसास !!!

हर संग जहाँ है हर्फ़नुमा
अलफ़ाज़ घुले हैं गारे  में
नज़्म सी बसती  है हर जर्रे में
ग़ालिब की हवेली में

सुर्ख स्याही के छींटे कौनो में
अशरारों के निशाँ दीवारों पे
अब तक हैं मौजूद ज्यूँ के त्यूँ
ग़ालिब की हवेली में

नौशा के क़दमों की आहट
छत पे चिपका रौशनी का धुआं  
महफूज़ है खजाने की तरह
ग़ालिब की हवेली में

कौन कहता है ग़ालिब अब नहीं है
असद बनकर नौशा बनकर
वो हर एक ग़ज़ल में  जिन्दा है
ग़ालिब की हवेली में


भावार्थ...
०१/०१/२०१६
ग़ालिब का एहसास

ग़ालिब के हवेली , बल्ली मारां चांदनी चौक 
दिल्ली ६ 









Wednesday, December 30, 2015

टटोलिये मत

टटोलिये मत इस कलजुग के दरवेशों को
हर एक यहाँ बादशाहत का खाब रखता है

सौ टका सोना भी यहाँ खरा ना निकले
हर सुनहरा जर्रा मिटटी बेहिसाब रखता है

यहाँ पे अंधे नूर और गूंगे जुबान रखते हैं
आम आदमी भी  हुनर लाज़वाब रखता है

लौट जाओ सतयुग की आस रखने वालो
सच भी यहाँ झूठ का आफताब रखता है

पागल को ही यहाँ बस खुदा  मिला करते हैं
अक्ल वाला तो पत्थर का हिसाब  रखता है

भावार्थ
३१/१२/२०१५





मुझे नींद से जगा दिया...

मंजिल करीब थी और अपने करीब थे
दर्द जुदाई का विदा लेने ही वाला था
नूर-ए-खुदा का खुर्शीद सिराहने पर था 
तिलिस्म माया का टूटने ही वाला था

कि किसी ने मुझे नींद से जगा दिया...

भावार्थ
३१/१२/२०१५ 


नैया थक गयी हार

हो गए वो सब पार
नैया थक गयी हार

इस करवट कभी उस करवट
लहरों की छाती को थामे केवट
लेकर दो पतवार
नैया थक गयी हार

हो गए वो सब पार
नैया थक गयी हार

बूझे नदी में न कोई डगर
मंजिल दीसे सबको मगर
सोचत सब मझधार
नैया थक गयी हार

हो गए वो सब पार
नैया थक गयी हार

उतरे सब पर थाह न जानी
अपने मन की चाह न जानी
भूल भुलैया ये संसार
नैया थक गयी हार

हो गए वो सब पार
नैया थक गयी हार

भावार्थ
३०/१२/२०१५ 


Saturday, November 21, 2015

खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

दहलीज़ बनायीं घरों में फिर
बंद कर बैठे हैं दिल अपने
मज़हब का तेज़ाब छिड़क
झुलसा कर  बैठे हैं सपने
एक रंग के हम दिखने वाले
रंगों से बँटे हैं फिर जाने क्यों

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

सरहद खींचे मुल्क के तन पे
हर एक पडोसी है दुश्मन
उनको दिखाते अपने जलवे
पर इंसान ही मरते हैं पल छिन 
मिटटी से बने हम पुतले
तारों से बँटे हैं फिर जाने क्यों

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

है खाब एकसा है चाह एकसी 
इंसा के जेहेन में पलने वाली 
है दर्द एकसा है चीख एकसी 
मौत के उर से उठने वाली 
आईने के कर के टुकड़े फिर 
अक्स ये बँटे हैं फिर जाने क्यों 

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ 


भावार्थ 
२२/११/२०१५ 

Sunday, November 8, 2015

वही तो खुदा है

तलाश जारी है जिसकी वही तो गुमशुदा है
जो जुड़ने की चाह लिए फिरे वही तो जुदा है
मन के लिए कभी है संग तो है कभी ख़याल
असल में जो तुझमें बस रहा है वही तो खुदा है

भावार्थ
८/११/२०१५

Monday, October 19, 2015

अक्टूबर की सुबह

कौन कहता है बदलाव अच्छा नहीं होता
अक्टूबर की सुबह सैर पे जा के तो देखो

अक्टूबर की सुबह
मतलब
सर्दी की पहली चहल पहल
हाफ स्वेटर का आगाज़
हर पल चाय की उठती तलब
खुद पे इतराते हुए फूल
हाथ मलते हुए लोग
लम्बी सांस लेते सैर पे निकले लोग
गर घर से एक दम निकल जाओ
तो रोंगटे खड़े हो जाएं
कुछ ऐसी ही सुभावनी है
अक्टूबर की सुबह

भावार्थ
२२/१०/२०१५



Saturday, October 17, 2015

अँधेरा पुकारे उजारे को

अँधेरा पुकारे उजारे को
बूँद निहारे किनारे को

धधक रहा हर इक पल
बुझादो वक़्त के पारे को

भंवर है ये साँसों का
थमने को ढूढे सहारे को

तू ही खुदा है जान ले तू
क्यूँ तके चाँद और तारे को


भावार्थ
१७/१०/२०१५

















Wednesday, October 14, 2015

~ इश्क़ ~

~ इश्क़ ~

इश्क़ इक अलफ़ाज़ भर नहीं
ये गूंजती मचलती ग़ज़ल है
घुँघरू की छन छन की तरह
रूह की  जिस्म  से वसल है


जीने के लिए एक जिंदगी बहुत ज्यादा है
और पाक मोहब्बत के लिए बहुत कम

अलफ़ाज़ उस आग को बयाँ  कैसे करें
जो लगाये ना लगे और बुझाए न बुझे

बहुत उधार बाकी है हमसफ़र का मुझपे
हर एक बोसा जो उसने मरहम का दिया

तेरे होने से सांस है
तेरे होने से आज है
तेरे होने से हर्फ़ हैं
तेरे होने से साज हैं

गर खुदा ने दर्द की जिंदगी बख्शी
तो इश्क़ का मरहम भी दिया उसने


इश्क़ जब परवान चढ़ता है
तो हमशक्ल हो जाते है हम
 भावार्थ
१५/१०/२०१५



Saturday, October 10, 2015

पोटली दर्द की लिए फिरता तू




पोटली दर्द की लिए फिरता तू
क्यों न खुदसे दूर इसे रखता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

आह ये जिस्म से जो उठती है
थक गया हूँ बस यही कहता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

कून्स जो एक तेरे जेहेन में हैं
कोढ़ बनके  क्यों है रिसता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

मंजिल से पहले ही राह मिट गयी
किस वजह से है फिर  चलता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

तूने बारिश बनके लुटाया है सब
रह गया है सेहरा सा कराहता तू

पोटली दर्द की लिए फिरता तू …

हर  मरासिम की डोर टूट गयी
क्यों उसी डोर से है बंधा रहता तू 

पोटली दर्द की लिए फिरता तू
क्यों न खुदसे दूर इसे रखता तू

भावार्थ
११/१०/२१०५



Monday, October 5, 2015

तुम न मरने तो अपनी माँ को

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

मिटा ही दो उस रीत को तुम 
जिसको पुरखो ने बनाया था 
गौ माता  और कामधेनु कह 
उन लोगों ने मेरा मान बढ़ाया था
बेघर दिखती  है गलियों में जो 
तुम यूँ न फिरने दो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

भूख से है दयनीय हाल मेरा 
कैसे फिर  तुमको दूँ वरदान
अश्रु मेरे तुम देख न पाते 
कैसे समझूँ तुमको इंसान 
इस भूख की गहरी खायी में 
न गिरने दो पानी माँ को 
तुम न मिटने दो पानी माँ को 

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 


हर आह मेरी मुझतक सीमित 
इस बहरे धरम के लोगों में 
बस मूह की बकबक करके जो 
लिप्त हुए हैं विषयों  भोगों में  
इस नरक से बूचड़ खाने में 
तुम न  कटने ने दो अपनी माँ को 

तुम न मरने तो अपनी माँ को 
तुम न मिटने तो अपनी माँ को 

भावार्थ 
०२/१०/२०१५ 


Saturday, September 19, 2015

तू जो नहीं है मेरे साथ

ग़म हैं दिन दर्द है ये रात
तू जो  नहीं  है मेरे  साथ

आँखों में काजल लगाऊं नहीं
डर  हैं  कहीं ये   बह ना जाए
किस कदर हूँ में  अधूरी अब
बह कर कहीं ये  कह न जाए

रुलाये तेरी अब हर बात
तू  जो  नहीं है मेरे  साथ

ग़म  हैं दिन दर्द है ये रात
तू जो  नहीं  है  मेरे  साथ

हर एक चीज़ है मेरे लिए
दिल ये मगर लगता नहीं
हवा है वही फ़िज़ा है वही
कुछ भी अच्छा लगता नहीं

तन्हाई में डूबे हैं जज्बात
तू  जो  नहीं  है  मेरे साथ

ग़म  हैं दिन दर्द है ये रात
तू जो  नहीं  है  मेरे  साथ

हर वक़्त है बस तेरा ही ख्याल
लगता है तू मेरे पास आ जाएगा
मुझको ले अपनी बाहों में  तू
मेरे दर्द को फिर मिटा जाएगा

दिल ये तलाशे तेरा ही साथ
तू  जो  नहीं है मेरे साथ

ग़म  हैं दिन दर्द है ये रात
तू जो  नहीं  है  मेरे  साथ

भावार्थ
२०/०९/२०१५













Sunday, September 13, 2015

ये वक़्त की डगर

ये वक़्त की डगर
हम है चले मगर
नहीं मंजिल दूर तक
मंजिल दूर तक

तनहा  रास्ते
चलें किसके वास्ते
नहीं मंजिल दूर तक
मंजिल दूर तक

थक गए कदम
होश खो चुके  हम
नहीं मंजिल दूर तक
मंजिल दूर तक

आँख हैं बोझिल
बिखरा है दिल
नहीं मंजिल दूर तक
मंजिल दूर तक


भावार्थ
१३/०९/२०१५


























गुमान


गुमान क्यों है खुद की शख्शियत पर तुझको
मत भूल बस साँस के गुबार भर से जिन्दा है तू
भावार्थ
१२ /०९/२०१५


Monday, September 7, 2015

दर्द की हद

अपने दर्द की हद पे क्यूँ इतराती है तू मौत
तूने शायद कभी बेवफाई का दर्द नहीं देखा

भावार्थ
०७/०९/२०१५


Sunday, September 6, 2015

बेवजह बस बेवजह

दोनों को था "एक" पर यकीं मगर 
तेरा सच मेरा सच कभी एक न था 

मंजिल थी दोनों की एक मगर 
तेरा रुख मेरा रुख कभी एक न था 

आंसू थे दोनों की आँखों में मगर 
तेरा दुःख मेरा दुःख कभी एक न था 

हमसफ़र तो थे मगर हमनवा नहीं 
तेरा मन मेरा मन कभी एक न था 

भावार्थ 
१६/०९/२०१५ 




जुस्तजू की इन्तहा मत पूछ तू

जुस्तजू की इन्तहा मत पूछ तू
बस तू ही मेरा पैरहन हो जाए
किसको परवाह है आबरू की
जो तेरे इश्क़ में मगन हो जाए

भावार्थ
०६/०९/२०१५














जुस्तजू की इन्तहा मत पूछ तू

जुस्तजू की इन्तहा मत पूछ तू
बस तू ही मेरा पैरहन हो जाए
किसको परवाह है आबरू की
जो तेरे इश्क़ में मगन हो जाए

भावार्थ
०६/०९//२०१५


Saturday, September 5, 2015

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैया लाल की

है आनंद उमंग भयो जय हो नन्द लाल की 
नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की 

हे ब्रज में आंनद भयो जय यशोदा लाल की 
नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की 

है आनंद उमंग भयो जय हो नन्द लाल की
गोकुल के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की

जय यशोदा लाल की जय हो नन्द लाल की
हाथी घोडा पालकी जय कन्हैया लाल की

है आनंद उमंग भयो जय हो नन्द लाल की
है कोटि ब्रह्मनन्द के अधपति लाल की

है गइयन चरान आयो जय हो पशुपाल की
नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की

आनंद से बोलो सब जय हो ब्रज लाल की
हाथी घोडा पालकी जय कन्हैया लाल की

जय जो ब्रज लाली की पवन प्रतिपल की
नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की

जय श्री कृष्णा
जन्माष्टमी ५ सितम्बर २०१५





Friday, September 4, 2015

स्त्री होने के खातिर

धुआं, जलन और कालिख
भूख की खातिर

रस्म, रीति और रिवाज़
समाज की खातिर

सिन्दूर ,बिंदी और बिछिया
पति की खातिर

जेवर, साड़ी और  हया
कुटुंब की खातिर 

पैरहन ये सब के सब
अपने अक्स से लपेटे
अर्धनग्न कर दिए गए 
अपने वजूद को समेटे

मैं जी रही हूँ

घुटन, दर्द और व्यथित
स्त्री होने के खातिर

भावार्थ
०५/०९/२०१५

Monday, August 31, 2015

गुमनाम हो कर भी नाम हो तो कोई बात है !!!

आगाज़ भर होने का जश्न मनाना क्या
जश्न गर अंजाम का हो तो कोई बात है

है गर सुकून तो सब खिलखिलाते हैं
दर्द में जो लब खिले तेरे तो कोई बात है

जिंदगी में तो सबकी मोहब्बत होती है
मौत के बाद भी इश्क़ रहे तो कोई बात है

यूँ तो जूनून रगो में सब लिए फिरते हैं
जो बहे लहू आँख से तेरे तो कोई बात है

हर बार मुझसे मिलने की कोई वजह थी
बेवजह  युही मिल जाओ तो कोई बात है

वफ़ा को वफ़ा मिलना भी कोई इश्क़ है
बेवफा से हो जो मोहब्बत तो कोई बात है

बदनाम हो कर नाम मिला तो क्या मिला
गुमनाम हो कर भी नाम हो तो कोई बात है

आगाज़ भर होने का जश्न मनाना कैसा
जश्न गर अंजाम का हो तो कोई बात है

भावार्थ 
३१/०८/२०१५ 



Wednesday, August 26, 2015

करार भी तेरा बेक़रार हो जाए

मेरे इश्क़ का  जुनूँ ऐसा है
करार भी तेरा बेक़रार हो जाए

मय की तासीर है इतनी
असर भी तेरा बेअसर हो जाए

मेरी नज़र इस तरह देखेगी
शर्म भी  तेरी बेशर्म हो जाए

कुछ बात तो है उसकी बात में
जुबान बड़ों की बेजुबान हो जाए

भावार्थ
२५/०८/२०१५




Tuesday, August 25, 2015

दर्पण देखा जब भी मैंने ..... इक परछाई सी पायी है !!!

दर्पण देखा जब भी मैंने
इक  परछाई सी पायी है
मेरे अक्स उजियारे  की
कालिख सी सूरत पायी है

कल की गठरी  है भारी
आगे बढ़ना है मुश्किल
खायिश तो एक चिंगारी है
इसकी  है न कोई मंजिल

जिसने चाही ये  मंजिल
उसने  आग  लगायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक  परछाई सी पायी है

जिंदगी है ये रोग कोढ़ का 
हर दिन  रिसता रहता  है 
मजबूर बड़ा लाचार है तू 
दो पाटों में पिसता रहता है 

जिसने ओढ़ा मौत का चोला 
उसने ही जिंदड़ी पायी है  
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक  परछाई सी पायी है

वक़्त का लट्टू चलता है
और लोग बजाते है ताली
भर भर के रखते हैं मटके
फिर जाते हैं हो कर खाली

खाली रहा जो हर पल में
उसने ही जन्नत पायी है
दर्पण देखा जब भी मैंने
इक  परछाई सी पायी है

मेरे अक्स उजियारे  की
कालिख सी सूरत पायी है 


भावार्थ 
२४/०८/२०१५









Sunday, August 23, 2015

कुछ शाख दरख्तो पे ऐसी

कुछ शाख दरख्तो पे ऐसी
जो हैं मगर बेजान है सब
न फूलों की मदहोशी रही
न हरियाली का निशाँ है अब

भावार्थ



इस रक्त की कोई परछाई नहीं होती




इस रक्त की कोई परछाई नहीं होती
सुर्ख लाल रंग की कोई  स्याही नहीं होती

जुदा करने का चाहे करो जितने जतन 
अपनी है जो चीज़ वो फिर परायी नहीं होती

तिलिस्म का कोई आकार नहीं होता
इस जेहेन को तोलने  की कोई इकाई नहीं होती

एक वो जिंदगी है जो बस वफ़ा करती है
और ये मौत है जिससे कभी बेवफाई नहीं होती

दिया बाती से और चाँद आफताब से रोशन
हर उम्मीद की  चीज़ नूर-ए -इलाही नहीं होती


भावार्थ
२३/०८/२०१५




Saturday, August 15, 2015

ये कागज़ की नाव है

ये कागज़ की नाव है 
बड़ा ही तेज बहाव है 

तुम चलते रहो राही 
बड़ा दूर अभी गांव है

धुआं जो उठ रहा  है 
अभी गीला अलाव है 

मत रुको दरख़्त पे 
यहाँ धधकती छाँव है 

बहुत देर तक चलना है 
तेरा नन्हा सा पाँव है 

कतई इश्क़ नहीं है वो 
जो  इकतरफा लगाव है 

ये कागज़ की नाव है 
बड़ा ही तेज बहाव है 

भावार्थ 
१६/०८/२०१५ 





साँसों की कैद में है जिंदगी

उम्र  की  कैद  में है  जिंदगी
साँसों की  कैद  में है  जिंदगी

जिनसे है खुशियों की चाहतें
उनसे है मिलती हमें  आहते
अपनों की  कैद में है जिंदगी
साँसों  की  कैद में है  जिंदगी

खाब के कांटो में हम फंस रहे
दरिया- ए- उम्मीद में धंस रहे
सपनो  की  कैद  में है  जिंदगी
साँसों  की  कैद में  है  जिंदगी

कौन हूँ मैं कौन है मेरा खुदा
कौन है हो गया जिससे जुदा
निराकार की कैद में है जिंदगी
साँसों की  कैद में  है जिंदगी

उम्र  की  कैद  में है  जिंदगी
साँसों की  कैद  में है  जिंदगी

भावार्थ 
१५/०८/२०१६ 
" Freedom from chains of Human Psychology"
Happy Independence day !!!


Sunday, August 9, 2015

एक बैचैनी सी है हर पल

एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
शायद हौंसला कम है
और खाब कुछ ज्यादा
या फिर इरादा ही
शायद  उतना पुख्ता नहीं है
वरना इसकदर 
बेकरारी न सुलगती

एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ
शायद दिल का जना  
जुबान कह नहीं पाती 
या फिर आशिक़ी अभी 
उस मकाम तक  नहीं पहुंची 
वरना तामीर-ए-इश्क़ 
हो ही जाती अपनी  

एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ 
अजनबी भीड़ में शायद 
कोई अपना नहीं मिला 
या फिर तन्हाई की धुंध में 
कोई हमसफ़र नहीं दिखा 
वरना  इस हद तक 
तीरगी  कभी नहीं रही 

एक बैचैनी सी है हर पल
न जाने क्यूँ 

भावार्थ 
९/०८/२०१५  

Friday, August 7, 2015

ये जमीं ये मेरा आसमाँ

ये  जमीं ये मेरा आसमाँ
बड़ा  खूबसूरत है ये जहाँ
मेरी जिंदगी परवाज़ है
हो फ़िज़ा मेरी  मैं उड़ूँ जहाँ

ये  जमीं ये मेरा आसमाँ
बड़ा  खूबसूरत है ये जहाँ

कभी  धुप लिख के आसमाँ
हमने सुनहरी कर दिया
फिर  षूप बांध के पाँव में
हम उड़े हैं हवाओं में

ये  जमीं ये मेरा आसमाँ
बड़ा  खूबसूरत है ये जहाँ

कभी वक़्त उठा के सरो पे हम
और आग लेके परों  पे हम
कभी छाँव लेके हम कहीं
हम उड़ें जहाँ हवा नहीं

ये  जमीं ये मेरा आसमाँ
बड़ा  खूबसूरत है ये जहाँ

मेरी जिंदगी परवाज़ है
हो फ़िज़ा मेरी  मैं उड़ूँ जहाँ
ये  जमीं ये मेरा आसमाँ
बड़ा  खूबसूरत है ये जहाँ

गुलज़ार
Biography of APJ Kalam
https://www.youtube.com/watch?v=hBLa-D-MiVU

Sunday, August 2, 2015

हमसफ़र मिलते हैं मगर

हमसफ़र मिलते हैं मगर
कोई हमनवा नहीं मिलता
ढूँढो तो औरों के घर मिलते है
खुद का जहाँ नहीं मिलता

भावार्थ

गर हमसफ़र हो तो बस मय जैसा
जाम के बाद भी सुरूर तमाम रहता है
होश में रहूँ तो तेरा नाम छुपाता हूँ
मय के बाद बस तेरा ही नाम रहता है
 - भावार्थ









Monday, July 27, 2015

~ डॉ अब्दुल कलाम को भावभीनी श्रद्धांजलि ~

खुदा की  इबादत को अनाद शंख  दे गए तुम 
पाक आयतों में भी गीता का अंश  दे गए तुम 
जिस देश में आग लगाने पे तुले हैं  लोग वहां    
देशप्रेम की अलख "आग को पंख" दे गए तुम

भावार्थ

~ डॉ अब्दुल कलाम को भावभीनी श्रद्धांजलि ~
२७/०७/२०१५


Friday, July 24, 2015

बस यु ही बेवजह

हर चीज़ करने की एक  वजह  थी
शायद इसी से थक कर 
सोचा कुछ तो किया जाए
बस यु ही बेवजह

न मंजिल का ख्याल
न रास्ते की  परवाह
सुबह मैं  निकल गया  घर से
बस यु ही बेवजह

अपने दर्द को कुछ पल को भुला
अजनबी  को अपनेपन  से देखता
मैंने उसके दर्द को अपना लिया
बस यु ही बेवजह

स्कूल के बस्ते का बोझ ढोते
नन्हे  बचपन के साथ मैं
कुछ पल को खिलखिला लिया
बस यु ही बेवजह

जो अपनी  भूख के खातिर  था
मेरे पास जो भी  थोड़ा सा
मैंने एक बेजुबाँ को खिला दिया
बस यु ही बेवजह

किसी ने मन्नत मांगी  मजार पे
तो किसी ने संग से जन्नत चाही 
मैंने एक  बुजुर्ग के आगे सर को झुका दिया
बस यु ही बेवजह

हकीकत ये है जिंदगी की 'भावार्थ'
थक जाओगे जो किसी वजह से जीओगे
गर पानी  है उमंग तो जियो
बस यु ही बेवजह


भावार्थ
२५/०७/२०१५




Tuesday, July 14, 2015

है तेरा वजूद अब भी मेरे दिल की आहों में !!!

तेरी बाहों में सिमटा मेरा 
हर लम्हा गुज़र गया
रह गया बस तेरा अक्स निगाहों  में

उस मंजर पे जहाँ साहिल
समंदर से जा मिले
मिट गए तेर पैरों के निशाँ  रेत की राहों में

मेरी सुबह में न तेरी बातें रहीं
न वो रातों में तेरा सुरूर
मगर बिखरा है तेरा रंग बाकी इन हवाओं में

मेरी  साँसे कहें कि तू है यहीं
और सब कहते हैं कि तू अब न रही
है तेरा वजूद अब भी मेरे दिल की आहों में

भावार्थ











Tuesday, June 30, 2015

मुझको यकीं है सच कहती थी

मुझको यकीं है सच कहती थी
जो भी अम्मी कहती थी
जब मेरे बचपन के दिन थे
चाँद में परियां  रहती थी

एक ये दिन अपनों ने भी
हम से नाता तोड़ दिया
एक वो दिन जब पेड़ की साखें
बोझ हमारा सहती थी

जब मेरे बचपन के दिन थे
चाँद में पारियां रहती थी


एक दिन ये जब लाखों गम
और काल पड़ा है आंसूं का
एक वो दिन  जब एक जरा सी
बात पे नदियां  बहती थी

जब मेरे बचपन के दिन थे

चाँद में पारियां रहती थी

जावेद अख्तर 

Sunday, June 28, 2015

को नित नमन नित मनन






त्रिशूलधर  विनाशकारी  
विष पिए नीलकंठ धारी 
को नित नमन नित मनन 

त्रिनेत्र ओजस्वी का नृत्य 
भय विकृति और कुकृत्य 
का नित हनन नित हनन 

जटा मध्य जो सोम धरे 
अंग अंग जो भस्म  भरे 
हो नित शमन नित शमन  

योग मुद्रा समाधि  धारी  
त्रिकाल बसे भोला भंडारी 
का नित भजन नित भजन 


भावार्थ 
२८/०६/२०१५ 




  

Thursday, June 18, 2015

आज कल आप साथ चलते नहीं

आज कल आप साथ चलते नहीं
आज कल लोग हमसे जलते नहीं

उनको पत्थर भी  किस तरह कह दूँ
वो किसी तौर भी पिघलते नहीं

आज कल लोग हमसे जलते नहीं

शहरों शहरों हमारा  चर्चा है
और हम घर से अब  निकलते नहीं

उनको दुनिया कहेगी दीवाना
रुख बदलती है जो बदलती नहीं


जगजीत सिंह -



Saturday, June 6, 2015

तू जरा इंतज़ार तो कर



तू जरा इंतज़ार तो कर
मैं जरूर लौटूंगा तेरे आगोश में

मत पौंछ आँखों से काजल की लकीर ये काली
मत मिटा तू लबो पर बिखेरी  सुर्ख़ ये लाली

तू जरा  श्रृंगार  तो कर
तू जरा इंतज़ार तो कर
मैं जरूर लौटूंगा तेरे आगोश में

तेरी हंसी में छुपा जो गम है वो मेरी याद है
पा कर सबकुछ  जो कम  है वो मेरी याद है

जरा सा ऐतबार तो कर
तू जरा इंतज़ार तो कर
मैं जरूर लौटूंगा तेरे आगोश में

मेरे दर्द को अलफ़ाज़ बन पड़ना है नसीब
तेरे दर्द को आँखों से फट पड़ना है नसीब

तू दर्द का इज़हार तो कर
तू  जरा इंतज़ार तो  कर
मैं जरूर लौटूंगा तेरे आगोश में

तू जरा इंतज़ार तो कर
मैं जरूर लौटूंगा तेरे आगोश में
होके बेसब्र टूटूंगा तेरे आगोश में

भावार्थ
७/६/२०१५









Sunday, May 24, 2015

ग़ालिब की कलम से

जिंदगी अपनी जब इस शक्ल में गुज़री ग़ालिब
हम  भी क्या याद करेंगे के हम  खुदा  रखते थे




Thursday, May 21, 2015

तू आरजू तू तमन्ना

तू आरजू तू तमन्ना
तू हसरत  ही नहीं बस

इन खाबो  से भी  परे
एक शख्शियत है  तेरी
मर्द के एहसासों से परे
एक कवायद  है तेरी

तू सुरूर तू चाहत  
तू नज़ाकत  ही नहीं बस

तेरे अरमान भी तो
नयी परवाज़ रखते हैं
तेरे उनमान भी तो
अपने कई नाम रखते हैं

तू हया तू श्रृंगार
तू मोहब्बत  ही नहीं बस

तुझमें  दर्द भी रहता है
एक परछाई सी बनकर
आँखों में काजल बहता है
इक तन्हाई सी बनाकर

तू तरंग तू उमंग
तू इबादत ही नहीं बस

तू आरजू तू तमन्ना
तू हसरत  ही नहीं बस


 भावार्थ 
२२/०५/२०१४ 

Monday, May 11, 2015

रात की कैद में ये चाँद और तारे हैं

रात की कैद में  ये चाँद और तारे हैं
जरा देखिये गौर से ये अक्स हमारे हैं

दरिया ये तेरे खाबो का तुझे ले डूबेगा
जिसने की इबादत बस वो ही किनारे हैं

ए पाखी परवाज़ जरा तू नीची रख
कल ही तूफ़ान ने कई पंख उखाड़े  हैं

लड़खड़ा रहे  हैं जो कल गिर जाएंगे
कुछ इस तरह के हुए वजूद हमारे हैं

रफ़्तार जरा तू धीमी कर इस जीने की
जो भागे हैं जोरो से वो  दौड़ को  हारे हैं

रात की कैद में  ये चाँद और तारे हैं
जरा देखिये गौर से ये अक्स हमारे हैं

भावार्थ
१२/०५/२०१५







Saturday, May 9, 2015

न मस्जिद है न मंदिर है

न मस्जिद है न मंदिर है
जो है तेरे दिल के अंदर है

ओख प्यासे की तू भर 
वो उसके लिए समंदर है

कर सके जो दवा-ए-दर्द
तू  ही सच्चा पैगम्बर है

जीत सके तो दिल को जीत
जो तू असल सिकंदर है

भावार्थ
१०/०५/२०१५



Thursday, May 7, 2015

इन्सां नहीं है ये दर्द का गुब्बारा हैं

तू तो उस समंदर की तरह बहता है
क्यों शहर में फिर तू तनहा रहता है

दर्द तेरा जुबाँ न बया कर पाये
हर अश्क़ तेरी कसक को कहता है

लब तेरे झूठी हंसी लिए  फिरते हैं
काजल गम की स्याही बन बहता है

इन्सां नहीं है ये दर्द का गुब्बारा हैं
जो तन्हाई के धागे से  बंधा रहता है 

जिस्म तो बस जुदाई में तड़पते हैं
दिल है वो शख्श जो मौत को सहता है

तू तो उस समंदर की तरह बहता है
क्यों शहर में फिर तू तनहा सा रहता है


भावार्थ
०७/०५/२०१५






Sunday, May 3, 2015

हैं पत्थर के ये पैगम्बर

है पहेली एक जिंदगी 
जिसे तू बूझता फिरता

भरम है तेरे जेहेन में
जिसे तू सूझता फिरता

हराएगा तुझे वो ही
जिसे तू जीतता फिरता

हैं पत्थर के ये पैगम्बर
जिसे तू पूजता फिरता

खुदा क्या है तू खुद है
जिसे तू ढूढ़ता फिरता

भावार्थ
०३/०५/२०१५





Sunday, April 26, 2015

ख़ामोशी तेरे कितने रंग ...

ख़ामोशी
तेरे कितने रंग

ख़ामोशी हया में लिपटी हो तो
इकरार भी हो सकती है
और जो  देर तक ठहर जाए तो
इंकार भी हो सकती है…

नए इश्क़ में ख़ामोशी
जिस्म का तूफ़ान हो सकती है
और जो हो रिश्ते में ख़ामोशी तो
उसका अंजाम  हो सकती है

ख़ामोशी जेहेन की हो तो
खुद से तकरार हो सकती है
ख़ामोशी अपनों की हो तो
दिलो की दीवार हो सकती है

ख़ामोशी परिंदो की हो तो
ऊँची परवाज़  हो सकती है
खमोशी रात की हो तो
खौफ का आगाज़ हो सकती है

ख़ामोशी अहंकार की हो
तो जूनून हो सकती है
ख़ामोशी आत्मसार की हो
तो सुकून हो सकती है

ख़ामोशी निगाहों की हो तो
वो एहतराम हो सकती है
ख़ामोशी दिल की हो तो
मौत का पैगाम हो सकती है

ख़ामोशी आवाम की हो तो
हुक्मरान का जुल्म हो सकती है
ख़ामोशी इबादतगाह की हो तो
उस खुदा का इल्म हो सकती है


ख़ामोशी
तेरे कितने रंग

भावार्थ 
२६/०४/२०१५ 


Saturday, April 25, 2015

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

उमड़ पड़े दरिया तो यहाँ दर्द बहे
फट  पड़े ये धरती तो यहाँ दर्द रहे
महफूज़ सूरत नहीं नज़र में यहाँ

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

लाश नहीं यहाँ तो खाब दफ़न हैं
धरा सेज और आसमाँ  कफ़न हैं
इन्सां को गिद्ध हैं नोचें फिरते यहाँ

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

रूह बेचैन जिस्म में बेकरारी है
उम्र हमने इस तरह  गुज़ारी  है
जिंदगी मौत में है क्या फर्क यहाँ 

खौफ में जीते है दर्द में मरते यहां
अजब सी है ये जिंदगी की दास्ताँ

भावार्थ
२५/०४/२०१४
नेपाल त्रासदी को समर्पित… 

तुझे जिसकी तलाश है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी
वो तो बस  तेरे  पास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

इश्क़ क्या है गुबार है  दिल का
फितूर ये कुछ ख़ास  है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

हर कोई आम है मेरे रिश्ते में
जो निभाए वही ख़ास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

किसने देखा है वो नूर-ए-इलाही
वो तो बस एक एहसास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी

हर जिंदगी का अंजाम मौत है
इस कदर क्यों बदहवास है साकी

तुझे जिसकी तलाश है साकी
वो तो बस  तेरे  पास है साकी 

भावार्थ

Wednesday, April 15, 2015

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ
इस धुप से बचने को मुट्ठी भर छाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

कहीं ले न उड़े मुझको ये शोहरत की हवा
जानता हूँ ये इसलिए जमीं पे पाँव रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

हर चीज़ का आराम मुझे मगर कोई भूखा भी है
यही सोच कर अपने निवालों का हिसाब रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

तेरा दर्द भी कितना अदना है है मेरे  दर्द के आगे
भीड़ में रोने की खातिर मैं तन्हाई पास रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ.…

मेरी तकदीर भी है रेत  के साहिल की तरह
मिटना है जिस दरिया में उसी का ख्याल रखता हूँ

इस शहर में जिन्दा मैं अपना गाँव रखता हूँ
इस धुप से बचने को मुट्ठी भर छाँव रखता हूँ

भावार्थ

१५/०४/२०१५

Sunday, April 12, 2015

जीने वाले बता क्या वजह जीने की

जीने वाले बता क्या वजह जीने की 
वो तो खामोश है एक बुत की तरह

कभी सोचा नहीं कभी समझा नहीं
जिंदगी तो लगे एक जुनूँ की तरह

एक कतरा पाने को  खो दिया दरिया भी
कितने नादान हैं हम बच्चे की तरह

भावार्थ
११/०४/२०१५ 






Saturday, March 28, 2015


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर  गयी 
दोनों को इक ही  अदा में रज़ामंद कर गयी 

शक हो गया है सीना खुश लज़्ज़त -इ-फराज 
तकलीफ-इ-पर्दादारी-ए ज़ख्म-ए-जिगर गयी 


वो बड़ा-ए-शबाना की सरमस्तियां कहाँ है 
उठिए बस अब तक लज़्ज़त-ए- खाब-इ शहर गयी 

उड़ती फिर है ख़ाक मेरी कु-ए-यार में 
बारे अब ए  हवा हवस-ए बाल-ओ-पार गयी 

देखो तो ये दिल फरेबी-ए- अंदाज़-ए -नक्श-ए -पा 
मौज-ए-खिरम-ए-यार भी क्या गुल कुतर गयी 


हर बुला हवस ने हुस्न परस्ती शिअर की 
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गयी 

नज़र ने भी काम किया बन  नक़ाब का 
मस्ती से हर निगाह तेरे रुख पर बिखर गयी 

फ़र्दा-ओ-दिन का तफर्रुका एक मर मिट गया 
कल तुम गयी की हम पे क़यामत गुज़र गयी 

मार  ज़माने ने असद उल्लाह खान  तुम्हें 
वो वाल-वले कहाँ वो जवानी किधर गयी 

मिर्ज़ा ग़ालिब !!!



घर अपने काशी शिव आएं

घर अपने काशी  शिव आएं
भक्त अभिलाषी शिव आएं

जर्जर घाट पे बहती मैया 
इसमें चलती निर्जर नैया 
मेरे धर्म का कौन खिवैया
गंगा के निवासी शिव आएं
घर अपने काशी शिव आएं

भक्त अभिलाषी शिव आएं
घर अपने काशी  शिव आएं

दृष्टि युक्त अँधा संसार
आडम्बर का होता व्यपार
पाप का सर पे है अम्बार
सब संकट नाशी शिव आएं
घर अपने काशी शिव आएं

भक्त अभिलाषी शिव आएं
घर अपने काशी  शिव आएं


भावार्थ
२९/०३/२०१५






Wednesday, March 25, 2015

मुफलिसी कहीं मजहब न बन जाए

मुफलिसी कहीं मजहब न बन जाए
नोट कागज़ का कहीं रब न बन जाए

जरा संभाल ये शौक जो तेरी आदत है
ये आदत तेरी कहीं तलब न बन जाए

जेहेन में होश रहे  जब तू मदहोश रहे 
वो लफ्ज़ तेरी मौत का सबब न बन जाए

भावार्थ
२५/०३/२०१५









Sunday, March 22, 2015

तेरी आरज़ू बहुत है तेरा इंतज़ार कम है

तेरी आरज़ू बहुत है तेरा इंतज़ार कम  है
ये वो हादसा है जिस पे मेरा इख्तियार कम है

ये हवादसे जमाना बड़ी दूर ले गए हैं
मुझे अपनी जिंदगी से ये नहीं कि प्यार कम  है

ये बुझे बुझे से सागर ये उदास उदास शीशे
तेरे मयकदे में साकी कोई वादाखार कम है

मैं वसीम शेर कहने के लिए तरस रहा हूँ
कई दिन से आँख मेरी इधर अश्कबार कम है

वसीम बरेलवी 

चित पट का नहीं खेल जिंदगी

चित पट का नहीं खेल जिंदगी
मत खेल जुआरी बन के तू

हर सांस तेरी एक लम्हा है
जी आज़ाद परिंदा बन के तू

अवसाद बड़ा इक  दरिया है
पार है जाना तो थम जा  तू

भावार्थ 

मैं तेरी आँख में आंसू की तरह रहता हूँ

मैं तेरी आँख में आंसू की तरह रहता हूँ
जलते बुझते  जुगनू की तरह रहता हूँ

सब मेरे चाहने वाले हैं मेरा कोई नहीं
मैं भी इस मुल्क में उर्दू की तरह रहता हूँ

हसन काज़मी !!!

तुझे कैसे इल्म न हो सका बड़ी दूर तक ये खबर गयी

तुझे कैसे इल्म न हो सका बड़ी दूर तक ये खबर गयी
की तेरे ही शहर की शायरा तेरे इंतज़ार में मर  गयी

कोई बात थी कोई था सबब जो मैं वादा  मुकर गयी
तेरे प्यार पर तो यकीन था मैं खुद अपने आप से डर गयी

वो तेरे मिज़ाज़  बात थी ये मेरे मिज़ाज़ की बात है
तू मेरी नज़र से न गिर सका मैं तेरी नज़र से उत्तर गयी

है खुद गवाह तेरे बिना  मेरी ज़िन्दगी तो न कट  सकी
मुझे ये बता कि मेरे बिना  उमर  तेरी कैसे गुज़र गयी

वो सफर को अपने तमाम कर गयी रात आएंगे लौटकर
ये नसीम मैंने सुनी खबर तो मैं शाम से ही संवर गयी

मुमताज़ नसीम !!!












Saturday, March 21, 2015

लाल रक्त चहुँ ओर

लाल रक्त चहुँ ओर
भय लिप्त ह्रदय घनघोर

संग से कदम
क्रोध है विषम
निर्जर आत्मा
ढूढे दैत्य हर ओर
लाल रक्त चहुँ ओर

गंध में पुटाश
दृश्य में है लाश
नृदयी  देवता
पाप में सरावोर
लाल रक्त चहुँ ओर

नीर में विष भरा
नृत्य करती धरा
शिव की कामना
प्रकृति करे पुरजोर
लाल रक्त चहुँ ओर

लाल रक्त चहुँ ओर
भय लिप्त ह्रदय घनघोर

भावार्थ
२२/०३/२०१५ 

घोंसले तोड़ जहाँ आशियाने बने




ऐसी जगह कोई कैसे खुशियां चुने
घोंसले तोड़ जहाँ  आशियाने बने

कोयलों की कूक यहाँ गढ़ गयी
भीड़ की ये चीख देखो बढ़ गयी

बेसुरे साज से कोई सुर कैसे बने
घोंसले तोड़ जहाँ  आशियाने बने

मोर के नृत्य करते हमको बिभोर
इन पत्थरो में पनपे  कुकृत्य घोर

बिखरे कांच से आईना कैसे बने
घोंसले तोड़ जहाँ  आशियाने बने

यहाँ काग का अपना ही राग था
फूलों का कलयिों का एक बाग़ था

बंजर जमीन में  बीज कैसे जने 
चोसले तोड़ जहाँ आशियाने बने

ऐसी जगह कोई कैसे खुशियां चुने
घोंसले तोड़ जहाँ  आशियाने बने

भावार्थ

Tuesday, March 3, 2015

हो जाऊं चुप जो अगर लफ्ज़ बयाँ हो जाएं

हो जाऊं जो खामोश अगर ये लफ्ज़ बयाँ हो जाएँ
हँस लूँ जरा जो तेरे संग तो ये अश्क़ बयाँ हो जाएं

चलता रहूँ तो छाले  मेरे चुभते  नहीं  मुझको
थम जो जाऊं अगर तो मेरे  दर्द बयाँ हो जाएं

जब तक हैं अजनबी हम तो मोहब्बत जिन्दा है
नज़रो से मिल गयीं जो नज़र तो इश्क़ बयाँ हो जाएं

तनहा हूँ तो महफूज है मेरी जिंदगानी की ये किताब
घुल मिल जाऊं जो दुनिया में इसके हर्फ़ बयाँ  हो जाएँ

हो जाऊं जो खामोश अगर ये लफ्ज़ बयाँ हो जाएँ
हँस लूँ जरा जो तेरे संग तो ये अश्क़ बयाँ हो जाएं


भावार्थ






Saturday, February 14, 2015

न है आज़ाद परिंदा इस दुनिया में

हर रूह  में है जब तन्हाई बसी
कौन है जिन्दा इस दुनिया में

सब के सब तो अब आम हुए
है कौन चुनिंदा इस दुनिया में

हर कोई तो बन बैठा खुदा 
है कौन बाशिंदा इस दुनिया में

मन की कैद में है हर कोई
न है आज़ाद परिंदा इस दुनिया में

भावार्थ

इश्क़ की दास्ताँ है प्यारी

इश्क़ की दास्ताँ है प्यारे
अपनी अपनी जुबान है प्यारे

हम जमाने से इंतकाम लेंगे
इक हंसी दमियां है पप्यारे

तू नहीं मैं हूँ मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे

रख कदम फूंक फूंक कर नादाँ
जर्रे जर्रे में जान है प्यारे

जिगर मुरादाबादी





Sunday, February 1, 2015

कांच का रास्ता

कांच का रास्ता कदम पत्थर के
बताओ हम भला मंजिल पाएं कैसे
लबो पे  बसा है जाल छालों का 
बताओ हम भला मुस्कुराएं कैसे 

भावार्थ 







शारयर

ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सा दयार है
हद-ए -निगाह तक जहाँ गुबार ही गुबार है
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मेरे हिस्से के जमीं बंज़र थी मैं वाकिफ न था
बेसबब  इलज़ाम  मैं   देता  रहा  बरसात को

शारयर





Saturday, January 17, 2015

खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं

खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं
खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं

है  तेरी ये पूरी ही कायनात
क्यों तेरी फिर भी कोई जगह नहीं
हर शय में है गर मौजूद तू
क्यों तू है फिर भी किसी नज़र नहीं

खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं
खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं

जो है नमाज़ों की इबादात  में  बसा
क्यों दिलों में तू  है समाता  नहीं 
जो तू है आयतों के अलफ़ाज़ में 
क्योँ  तू लबों पे फिर नज़र आता नहीं

खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं
खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं

इन बाज़ारों में जो ढूढ़ा तुझे
बस तेरा नाम बिकता नज़र आया
इन पहारों में  ढूढ़ा तुझे
फ़कीर तेरे नाम जपता नज़र आया

खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं
खुदा तोय कैसे बूझूँ मैं


भावार्थ











Thursday, January 8, 2015

मौत के आगे है खड़ी जिंदगी तू देख

मौत से ख़ामोशी एक चीखें अनेक
मौत के आगे है खड़ी जिंदगी तू देख

जो चुपचाप है वो है खौफ में
जो बेबाक है  वो है जोश में
बेहोशी में घुला हुआ है होश तू देख
मौत के आगे है खड़ी जिंदगी तू देख

भावार्थ














Sunday, January 4, 2015

है एक समंदर बाहर जो

है एक समंदर बाहर जो 
है एक समंदर भीतर भी 

मारा फिरे है भीड़ में तू 
करता फिरे है आडम्बर 
मार के खुद के कोड़े तू 
तू ढूढ़ रहा है पैगम्बर 

है एक पैगम्बर बाहर जो  
है एक पैगम्बर भीतर भी

है एक समंदर बाहर जो.… 
है एक समंदर भीतर भी.… 

कैसे सम्भालूँ मैं खुद को 
पल पल भवर उमड़ते हैं 
जितना संभालू इस दिल को 
उतने ही बवंडर बढ़ते हैं 

है एक बवंडर बाहर जो  
है एक बवंडर भीतर भी 

है एक समंदर बाहर जो.… 
है एक समंदर भीतर भी.... 

जाकर मक्का मदीना तू 
शैतान पे  पत्थर मारे  है 
शैतान है  जो तेरे भीतर 
हर रोज तू  उससे हारे है

है एक मंथन ऐसा बाहर जो 
है एक मंथन वैसा भीतर भी 

है एक समंदर बाहर जो.…
है एक समंदर भीतर भी.… 

भावार्थ 
४ जनवरी २०१५ 

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं