Saturday, September 13, 2014

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

न तन में खून फ़राहमन अश्क़ आँखों में
नमाज-ए-शौक तो वाजिब है बे वजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मयकदे वालो
नहीं जो वादा-ओ- सागर तो हाओ-हू ही सही

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक-ए- दिल
किसी के वादा-ए -फ़र्दा की गुफ्तगू की सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

दयार-इ-गैर में महरम अगर नहीं कोई
तो फैज़ जिक्र-इ-वतन अपने रू-ब -रू ही  सही

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही

फैज़ अहमद फैज़