Thursday, May 29, 2014

किताबें

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्प्यूटर के पर्दों पे
बड़ी बैचैन रहती हैं किताबें
अब उन्हें नींद में चलने की आदत हो गयी है
कोई सफा पलटता हूँ तो सिसकी सुनाई देती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के वो तुण्ड लगते हैं वो अलफ़ाज़
जिनपे अब कोई मायने नहीं उगते
जबान पे आता था जो जायका सफा पलटने का
अब एक ऊँगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है

गुलज़ार






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