Saturday, May 31, 2014

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ
ज्यादती खुद मैं अपने साथ करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

भीड़ से लेकर पहड़ो की तन्हाई तक
सुकूँ की खायिश मैं दिन रात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

लत गर हद में रहे फिर भी बेहतर है
रोज हद के पार मैं अपने हालात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

मेरा हमदम भी बस एक बात पे है खफा
मैं बावरा  भी रोज  वही बात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

जो था वो सब लत में मैंने बेच दिया
अब नीलम मैं अपने जज्बात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

जुस्तजू जिंदगी की भला मैं कसी करूँ
जब भी करता हूँ मैं मरने की बात करता हूँ

मौत अपनी मैं अपने हाथ करता हूँ

भावार्थ

ए खुदा तू फ़कीर बना मैनु

ए  खुदा तू फ़कीर बना मैनु
या खुद में ही करदे फना मैनु

रंगीन सी दुनिया में अब रंग नहीं
मरासिम भी मेरे अब संग नहीं
बाकी भी फतह को कोई जंग नहीं

ए  खुदा तू फ़कीर बना मैनु

इश्क़ नसीब हुआ हलल बनकर
सुकून नसीब हुआ खलल बनकर
दर्द नसीब हुआ मुझे वसल बनकर

ए  खुदा तू फ़कीर बना मैनु

कुनबा भी मुझे अब भीर सा लागे
जीना शहर का मुझको  कीर सा लागे
मुस्कुराना भी चाहूँ तो पीर सा लागे

ए खुदा तू फ़कीर बना मैनु

भावार्थ 

रंग गोरा गुलाब लै बैठा

मैनु तेरा शबाब ले बैठा
रंग गोरा गुलाब लै बैठा

किन्नी पीती ते किन्नी बाकी है
मैनु ऐहो हिसाब लै बैठा

रंग गोरा गुलाब लै बैठा

मैनु जाद्वि तुसीहो याद आये
दिन दिहाड़े शराब लै बैठा

चंगा होन्दा  सवाल न करदा
मैनु तेरा जवाब ले बैठा

रंग गोरा गुलाब लै बैठा

शिव कुमार "बटालवी"


शबाब : Peak of Youth

Thursday, May 29, 2014

किताबें

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्प्यूटर के पर्दों पे
बड़ी बैचैन रहती हैं किताबें
अब उन्हें नींद में चलने की आदत हो गयी है
कोई सफा पलटता हूँ तो सिसकी सुनाई देती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के वो तुण्ड लगते हैं वो अलफ़ाज़
जिनपे अब कोई मायने नहीं उगते
जबान पे आता था जो जायका सफा पलटने का
अब एक ऊँगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है

गुलज़ार






Wednesday, May 28, 2014

क्या हूँ मैं ....माँ के अक्स के सिवा …

क्या हूँ मैं
उसी के सजदों का सबब
उसी  की दुआओं का असर
उसी  का एक सपना साकार हूँ मैं

उसी की आँखों का तारा
उसी के कलेजे का टुकड़ा
उसी की सीख का सरोकार हूँ में.…

उसी के मन का कोना
उसी के तन का हिस्सा
उसी की जिंदगी उसका संसार हूँ में

उसी की मुस्कराहट
उसी से मिलता जुलता सा
उसी की  परछाई का आकार हूँ मैं

क्या हूँ मैं
माँ के अक्स के सिवा …

भावार्थ

















पीतल को कौन सुनार खरीदेगा

भीड़ से नहीं संग सी तन्हाई से डरा हूँ
जब भी मरा हूँ तेरी जुदाई से मरा हूँ

जो हद है समंदर की किनारों के बीच
उस हद तक मैं तेरी  रुस्वाई से भरा हूँ

..........

पंख तोड़ के खुद के मैना ने ख़ुदकुशी की
बोलने का करतब दिखाने की खातिर
आज फिर एक तोता पिंजरे में कैद हुआ.....

……

मोहब्बत हो तो जनाजे और कब्र जैसी
दुल्हन सी सजा के लाती है दुनिया इसे
और छोड़ जाती है उस महबूब के आगोश में

.......

गरीब हो क्यों ईमान लिए फिरते हो
तोल भी दो तुम अपने जमीर को
पीतल को कौन सुनार खरीदेगा
बेच तो जाकर इसे किसी अमीर को

……
न रंग, न किताब, न किसी रुत में था
न काबा में समाया न किसी बुत में था
हिरन सी बैचैन रही मेरी शख्शियत
खुदा जो था जैसा था मुझी खुद  में था

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भावार्थ 





Thursday, May 22, 2014

जय माता दी !!!

रेशम के धागे सी जुडी आस है
मुझे मालूम है माँ सदा मेरे पास है
करता हूँ  हर सांस उसके सजदे
बुलावा आ गया जो बहुत ख़ास है

जय माता दी !!!

भावार्थ


Saturday, May 10, 2014

अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला था 
भीड़ों में भी मैं खो न सका 
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
तना सस्ता मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग
जीवन भर कोई धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला
सदा प्रस्तावों को मैं ढो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर
मैं सुखशय्या पर भी सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका 
~ गोपाल सिंह नेपाली ~ 

कुछ ऐसा खेल रचो साथी


~ गोपाल सिंह नेपाली ~