Sunday, April 6, 2014

मृग तृष्णा मिटाये न मिटे

मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

बोध कि गगरी आधी है
कर्म कि गठरी लादी है
बदरी अजान की छटाये  न छटे
मृग   तृष्णा  मिटाये   न   मिटे

अहम् का बिछुआ काटें है
अविनाशी से हमको बांटे हैं
माया   की   धुंध   हटाये  न  हटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

तू दीपक और सब है अँधेरा
तू आनंद  सब  दर्द बसेरा
आसक्ति   ये   घटाए  न   घटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

ज्यूँ कांच भुवन आकाश बसाया
त्यूँ सचिदानंद त्रि-शरीर समाया
वही सत   नाम   रटाये  न  रटे
मृग   तृष्णा  मिटाये  न    मिटे

~ भावार्थ ~

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