Saturday, October 12, 2013

दशहरा की रीत चले !!!

आज चलो फिर रावन को जलाते हैं 
पुरानी रीत को नये अंदाज़ में मनाते हैं 

गर रावन को जलना है दस शीश जलाने होंगे 
अपने भीतर पलते दस अवगुण मिटाने होंगे 

"लोभ" है जिसके चक्कर में हम गिरते जाते हैं 
और चाहिये और चाहिये बस ये कहते जाते हैं 

"मोह" है जो हमको डोर से बांधे रखता है 
अपनो के भवर में हमको फसाये रखता है 

"क्रोध" है वो अनल जो हमको दहकाती है 
जब आये तो अपनी समझ बूझ खो जाती है 

"काम" है वो मद जिससे देव दानव बन जाते हैं 
तन,मन की गिरहो में इसके अवयव बस जाते हैं 

"अहम्" है जो हमको झूठी नाव में ले जाता हैं 
फिर खुद पत्थर बन कर हमको दरिया में डुबाता है 

"ईर्ष्या" है वो अग्नि जो दिल को ही जलाये
दूसरे का ना फर्क पदे खुद को हम तडपाये

"वहम" है वो अवगुण जो हमको डर से भरता है 
फितूर है खुद ही का जो सोच सोच में बढता है 

"दम्भ" है जो हम खुद को ऊंचे पद पर ले जाते हैं
जब गिरते है पद से तो खुद को मृत हम पाते हैं 

"आलस्य"  है वो अवगुण जो निद्रा भाव भरे 
पुरुषार्थ को हमारे जो दीमक बनकर साफ़ करे 

"घ्रणा" है जो इक  ब्राह्मण को शूद्र बनाती  है 
ये आदत है जो मानवता की दुश्मन कहलाती है 

ये दस शीश कटें तब  जाकर भीतर का रावण जले 
दहन हो इनका कुछ इस तरह  दशहरा की रीत चले 


~भावार्थ ~

1 comment:

Jolly said...

This is what exactly what every individual..entire mankind..should do
It is the need of the hour.
Very good one.