Saturday, October 19, 2013

कलियुग में बड़ी बैचैनी है

कलियुग में बड़ी बचैनी है

हकीकत और खाब में बड़ी दूरी है
भीड़ में घुटना तो आज मजबूरी है
नशा करना अब जीने के लिए जरूरी है

कलियुग में बड़ी बैचैनी है

क्यों कमाने का ढोंग करते जाते हैं
उम्र की दराजों में काम भरते जाते हैं
रिश्तों में बेइंतहा दूरियां करते जाते  हैं

कलियुग में बड़ी बैचैनी है

पहले तो खिलोने में ख़ुशी को समझा
फिर हमसफ़र में "खिलौना" समझा
खिलौना खुद हूँ ये आज जाकर समझा

कलियुग में बड़ी बैचैनी है

जब कार और घर का सपना देखा मैंने
बच्चो  के  साथ शाम को खोया मैंने
त्यौहार को माँ से दूर हो कर रोया मैंने

कलियुग में बड़ी बैचैनी है

कुछ पल को माँ की मैहर मिल जाए
पापा के कंधे पे मेले की सैर  मिल जाए
कुछ पुराने दोस्तों की ख़ैर मिल जाए

कलियुग में बड़ी बैचैनी है

~ भावार्थ ~  

Saturday, October 12, 2013

दशहरा की रीत चले !!!

आज चलो फिर रावन को जलाते हैं 
पुरानी रीत को नये अंदाज़ में मनाते हैं 

गर रावन को जलना है दस शीश जलाने होंगे 
अपने भीतर पलते दस अवगुण मिटाने होंगे 

"लोभ" है जिसके चक्कर में हम गिरते जाते हैं 
और चाहिये और चाहिये बस ये कहते जाते हैं 

"मोह" है जो हमको डोर से बांधे रखता है 
अपनो के भवर में हमको फसाये रखता है 

"क्रोध" है वो अनल जो हमको दहकाती है 
जब आये तो अपनी समझ बूझ खो जाती है 

"काम" है वो मद जिससे देव दानव बन जाते हैं 
तन,मन की गिरहो में इसके अवयव बस जाते हैं 

"अहम्" है जो हमको झूठी नाव में ले जाता हैं 
फिर खुद पत्थर बन कर हमको दरिया में डुबाता है 

"ईर्ष्या" है वो अग्नि जो दिल को ही जलाये
दूसरे का ना फर्क पदे खुद को हम तडपाये

"वहम" है वो अवगुण जो हमको डर से भरता है 
फितूर है खुद ही का जो सोच सोच में बढता है 

"दम्भ" है जो हम खुद को ऊंचे पद पर ले जाते हैं
जब गिरते है पद से तो खुद को मृत हम पाते हैं 

"आलस्य"  है वो अवगुण जो निद्रा भाव भरे 
पुरुषार्थ को हमारे जो दीमक बनकर साफ़ करे 

"घ्रणा" है जो इक  ब्राह्मण को शूद्र बनाती  है 
ये आदत है जो मानवता की दुश्मन कहलाती है 

ये दस शीश कटें तब  जाकर भीतर का रावण जले 
दहन हो इनका कुछ इस तरह  दशहरा की रीत चले 


~भावार्थ ~