Monday, April 30, 2012

My Fav 11...

१. अंखियों के झरोकों से... रविन्द्र जैन
२. होठों से छु लो तुम... इन्दीवर
३. हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबू... गुलज़ार
४. हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी ...जावेद अख्तर
५. कभी कभी मेरे दिल में... साहिर लुधियानवी
६. तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी , गुलज़ार  
७. लग जा गले कि ये हसी रात फिर हो न हो... हेमल संपत
८. आज जाने की जिद न करो... फ़याज़ हाश्मी
९. चुपके चुपके रात दिन .... हसरत मोहानी
१०.एक प्यार का नगमा है... संतोष आनंद
११. कसमें वादे प्यार वफ़ा... गुलशन बावरा


Saturday, April 28, 2012

वो खूबसूरत सिलसिला टूट गया...

वो खूबसूरत सिलसिला टूट गया...
बेपनाह लुफ्त-ओ- कैफ लिए
वो  निगाहों का करम  छूट गया... 
वफ़ा की लौ थी  जिसके इश्क में
वो एक यार भी  मुझसे रूठ गया...

भावार्थ








दरिया-ए-सुखन में उबरा हूँ मैं...

जब जिंदगी-ए- सेहरा में डूबा तो ...
दरिया-ए-सुखन में उबरा हूँ मैं...
कुंस-ए-उल्फत  की चाह हुई तो...
तेरे आस्तां पे  ठहरा  हूँ मैं...

तेरी वफ़ा से आज गुफ्तगू करता रहा...
इकतरफा मेरा दिल अपनी कहता रहा...  
दुनिया के सितम उसकी आँखों बोली...
जर्द चेहरा आलम-ए-बेवफाई कहता रहा...

भुलाने का हुनर न होता तो मर जाता...
देखता रहता आफताब को तो मर जाता...
जहर ही मर्ज की दवा है इश्क में भावार्थ...
लबो पे रख  भी लेता  दवा तो  मर जाता...

जिंदगी के बाद इक और जिंदगी जीनी है...
उसके दिल में...
उसकी यादो में...
उसके तसव्वुर में...
उसके खाबो में...
उसके आईने में...
उसकी यादो में...
जिंदगी के बाद एक और जिंदगी जीनी है...


भावार्थ...

Thursday, April 19, 2012

जिंदगी क्या है सांसो का पुलिंदा जैसे….

जिंदगी  क्या है सांसो  का पुलिंदा जैसे….
एक लाश  सा शख्स है जो हो जिन्दा जैसे...

पांच कूंचो पे हुआ बावरा फिरता....
कुछ ढूढने को अपने ही शहर का बाशिंदा जैसे...

समंदर की खाइश में बन गया सेहरा....
अपने करिश्मे पे है  खुदा भी  शर्मिंदा जैसे...

बात बात पे देता है तू दर्द की दुहाई...
फितरत-ए-दर्द हो  आदम को पसीदंदा जैसे ....

उड़ उड़ कर आता है उसी टहनी पे वो ….
इस रूह से निभाने को मरासिम वो परिंदा जैसे....

घर के आंगन और गलियारे न रहेंगे अब....
शहर में निकला है घर जलाने को दरिंदा जैसे...

बिकते है क़त्ल-ए-आम खुले बाजारों में...
हो गया हो लहू  इंसा का बाज़ार में मंदा जैसे ....

भावार्थ...  

कौन सांप रखता है उसके आशियाने में...

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में...
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में...

और जाम टूटेंगे इस शराब खाने में...
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में...

हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं...
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में...

फाकता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती...
कौन सांप रखता है उसके आशियाने में...
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सर से पांव तक वो गुलाबो का सजर लगता है...
बावरू होते हुए भी छूते हुए दर लगता है...

में तेरे साथ सितारों से गुजर सकता हूँ...
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है...

मुझमें रहता है कोई दुशमन-ए-जानी मेरा...
खुद से तन्हाई मिलते हुए डर लगता है...

जिंदगी तुने मुझे कब्र से कम दी जिंदगी....
पाँव फेलाऊँ तो दीवार से सर लगता है...

बशीर बद्र...

Thursday, April 12, 2012

तुम्हारे बाद...तुम्हारी याद...

तुम्हारे बाद...तुम्हारी याद...
वो हर एक बात...कही तेरे साथ...

में पल पल ही दोहरऊंगी...
जीवन यु जिए जाऊंगी...
जैसे मुझे मिली ही सजा...
तेरी याद ही अब तेरी जजा...

तुम्हारी याद...तुम्हारे बाद....
वो हर एक बात...कही तेरे साथ...

आँगन वही, रातें वही...
चांदनी के तले, बस तू ही नहीं...
दुखता है जिया...बिन तेरे पिया...
अन्धियरा है पर न जलता दिया ...

तुम्हारे बाद... तुम्हारी याद....
वो हर एक बात... कही तेरे साथ...

किस का सिला जो ये गम मिला...
इस कदर चाह का  है तुझसे  गिला...
तू अब दूर जा न अब याद आ...
ये अक्स तोड़ दिल के पार जा...

तुम्हारे बाद तुम्हारी याद...
वो हर एक बात... कही तेरे साथ....


भावार्थ...

Wednesday, April 11, 2012

बच्चो पे लदा बचपन क्यों है... !!!


बच्चो पे लदा बचपन क्यों है...
उजड़ा हुआ ये गुलशन क्यों है...

पल से बने दिन दिन से बने साल....
गुजरता जा रहा लम्हा हर  कमाल...

खुदा तेरी इनायत कम क्यों है...
बच्चों पे लदा बचपन क्यों है...

लोरी सुनने वाले लोरी सुनाएं...
खुल के हसने वाले क्यों रोते जाएँ...

तकदीर से इनकी अनबन क्यों है...
बच्चो पे लदा बचपन क्यों है...

सजा किस बात की पाए तू...
हादसे सी जिंदगी क्यों जिए जाए तू...

तेरी कोमल राहों में अड़चन क्यों है...
बच्चो पे लदा बचपन क्यों है...


भावार्थ...

Monday, April 9, 2012

जिंदगी हसीं मुझको लगती नहीं....

जिंदगी हसीं मुझको लगती नहीं....
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...

दर्द से ही उठता हो पर्दा जहाँ...
दर्द से ही गिरता हो पर्दा जहाँ...
दुनिया के आँगन के इस बाग़ में...
धडो में चिर सुलगती  इस आग में...
मोहब्बत नशीं मुझको लगती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...


कुछ बोराए से है सोने की छनकार से...
कुछ गिर गिर पड़े हुस्न की बौछार से...
हर जेहेन को है किसी न किसी का नशा..
जोंक का खून हर हुकुमरान में बसा...
जीने की तमन्ना मुझमें  उठती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...


क्या कहें इन बिखरे जमीरों  की दास्ताँ...
बुत बन के कूंचो पे गाँधी  करते हैं बयाँ...
भूख और रोष की नदी संग बहने लगी...
गुलामी आज़ादी के घर में आके रहने लगी...
सांस इस माहौल  में अब ठिठकती नहीं...
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...

जिंदगी हसीं मुझको लगती नहीं....
इंसानियत अब मुझको फबती नहीं...

भावार्थ...

Saturday, April 7, 2012

और चाहिए फ़राज़ तुझे कितनी मोहब्बतें...

उसने सुकूत-इ-शब् में भी अपना पयाम रख दिया...
हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया...

आमद-ए-दोस्त की भी कूए वफ़ा में आम थी...
मैंने भी  भी चराग सा दिल सरे-ए-शाम रख दिया...

शिद्दत-ए-त्रिष्णगी में भी गैरत-ए-मयकशी रही...
उसने जो फेर ली नज़र मैंने भी जाम रख दिया...

देखो ये मेरे खाब थे देखो ये मेरे जख्म है..
मैंने तो सब हिसाब-ए-जाँ बस सरेआम रख दिया...

उसने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुखन कहे...
मैंने तो उसके पाँव में सारा कलाम रख दिया...

और चाहिए फ़राज़ तुझे कितनी मोहब्बतें...
माओं ने तीरे नाम पे बच्चों का नाम रख दिया...


अहमद फ़राज़ !!!

अहमद फ़राज़ !!!

दाग दामन के हो दिल के हो या चहेरे के फ़राज़...
कुछ निशाँ वक़्त की रफ़्तार से लग जाते हैं ...

जरा सी गर्द-ए-हवस दिल पे ठीक है फ़राज़...
वो इश्क ही क्या जो दामन पाक चाहता है...

आशिकी में मीर जैसे खाब मत देखा करो...
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो...

वाशातें बढती गयी हिज्र के अजार के साथ...
अब तो हम बात भी नहीं करते गम खर के साथ...

अहमद फ़राज़ !!!

Friday, April 6, 2012

उन खंडहरों तक ये इंसानियत पहुंची...

उन खंडहरों  तक ये इंसानियत पहुंची...
वीरानियों तक उसकी वहशियत पहुंची...

दर्द की गूँज कूंचो पे हुई बेगानी...
हाथ से पहले भीड़ की नसीहत पहुंची...

मौत का मर्ज लिए जिंदगी फिरती है...
उस मुकाम तक मेरी तबियत पहुंची...

जिंदगी जीने का सबब न जाना हमने...
खुदा की मेहर से पहले शरियत पहुंची...

पाट दो ये दीवारों से झांकती  खिड़कियाँ...
वादा-ए-झूठ से पहले असलियत पहुंची...
भावार्थ

Thursday, April 5, 2012

नशा मय में नहीं उतना जो ग़ज़ल में हैं...

नशा मय में नहीं उतना जो तेरी ग़ज़ल में हैं...
मजा शय में नहीं उतना जो तेरी वसल में है...

नाम जिससे मिला उसी ने बदनाम किया...
उससे कहाँ तक बचें हम जो नसल में है...

सजदे को तरसते सर इबादत को तरसते धड...
अफकार बन गया है खुदा जो असल में है...

नशा मय में नहीं उतना जो तेरी ग़ज़ल में हैं...
मजा शय में नहीं उतना जो तेरी वसल में है...

भावार्थ..