Monday, March 5, 2012

दरिया सी वो कायनात !!!

दरिया सी है  कायनात वो जिसमें  डूबता सा जाता हूँ मैं ...
आगोश में जिसके  रेत की तरह   टूटता  सा जाता हूँ मैं...

खुद से बेख़ौफ़ हो गया अब किसी का खौफ क्या...
इमारत-ए-रूह, जकड-ए-जेहेन से छूटता सा जाता हूँ मैं...

नशा कांच के अक्स के सिवा इस  मिटटी मैं भी है...
एक नशे को छोड़  उस नशे को लूटता  सा जाता हूँ मैं...

जन्नत-ए-जींद के साहिल पे आज फिर दरिया से उबरा हूँ मैं...
रोग-ए-मौत का इलाज़ करने को उसी में कूदता सा जाता हूँ मैं...

जन्नत-ए-हयात  गर है बस यही तो खाब-ए-जन्नत न सही...
जितनी बार ये नसीब उससे  मूह फेर के लौटता सा जाता हूँ मैं...

गुल निखत  , रंग दिए, रौशनी महक, ये गुलिस्ताँ-ओ- आफताब ....
कैद कर सब हर्फ़ में  ले जिंदगी तुझसे दूर छूटता सा  जाता हूँ मैं...

काबे की   इबादत  बेअसर हुई बुत खाने में किये  सजदे भी  न लगे ...
खुदा-ओ-शिव  हैं भी  या है वहम ये सवाल पूछता  सा जाता हूँ मैं...


दरिया सी है कायनात वो जिसमें डूबता सा जाता हूँ मैं ...

आगोश में जिसके रेत की तरह टूटता सा जाता हूँ मैं...

 भावार्थ...

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