Thursday, December 15, 2011

अज़ब हालत थे मेरे...

अज़ब हालत थे मेरे...
अजब दिन रात थे मेरे...
मगर में टूटा नहीं था...
क्योंकि तुम साथ थे मेरे..
मेरे सर के तलबगारों की नज़र ऐसी उठती थी..
की लाखों उँगलियाँ थी और हजारो हाथ थे मेरे...
में पत्थर का ताबूत था उनके मंदिर में...
न दिल था मेरे सीने में न कुछ जज्बात थे मेरे...
में किसी और से क्या उम्मीद रखता...
वही गेर थे जो हालत थे मेरे...
मुझे मुज़रिम बना के रख दिया झूठे गवाहों ने...
अज़ब हालत थे मेरे...

अनजान !!!

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