Monday, December 5, 2011

मैं क्या दो रोज का मेहमान तेरे शहर में था ...

मैं क्या दो रोज का मेहमान तेरे शहर में था ...
अब चला हूँ तो कोई फैसल कर भी न सकूं...
जिंदगी की ये घडी टूटता पुल हो जैसे...
ठहर भी न सकूं और गुज़र भी न सकूं...

अहमद फ़राज़ !!!

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