Saturday, December 3, 2011

अहमद फ़राज़

अगरचे जोर हवाओं ने दाल रखा है...
मगर चराग ने लौ को संभाल रखा है...

भले दिनों का भरोसा क्या रहें न रहें...
सो मैंने रिश्ते-ए-गम को बहल रखा है...

हम ऐसे सादा दिलो को वो  दोस्त हों या खुदा...
सबने वादा-ए-पर्दा दाल रखा है..

फिजा में नशा ही नशा हवा में  रंग ही रंग...
ये किसने अपना पैराहन उछाल रखा है...

फ़राज़ इश्क की दुनिया तो खुबसूरत थी...
ये किसने फितना-इ- हिज्र-ओ-विसाल रखा है...


वहसते बढती गयीं हिज्र के आजार के साथ...
अब तो हम बात भी करते नहीं गम खार के साथ...

इसकदर खौफ है इस शहर की गलियों में की लोग...
चाक सुनते हैं तो लग जाते हैं दीवार के साथ...

हमको उस शहर में तामीर का सौदा है जाना...
जो दीवार में चुन देते हैं मेमार के साथ...

अहमद फ़राज़...

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