Monday, September 5, 2011

हम पढ़ रहे थे खाब के पुर्जों को जोड़ के...
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के...

इक बूँद जहर को फैला रहे हो हाथ ...
देखो कभी खुद अपने बदन को निचोड़ के...

आगाज़ क्यों किया था सफ़र उन खाबों का...
पछता रहे हो सब्ज जमीनों का छोड़ के...

कुछ भी नहीं जो खाबों की तरह दिखाई दे...
कोई नहीं जो हमको जगाये  झझोंड के...

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया...
अभी भी वक़्त है ले जाओ कश्तियों को मोड़ के...

शहरयार ... 



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