Sunday, August 7, 2011

इन्तिशार !!!

कभी जुमूद  कभी  सिर्फ  इन्तिशार  सा  है 
जहां  को  अपनी  तबाही  का  इन्तिज़ार  सा  है 
मनु  की  मछली  न  कश्ती -ऐ -नूह  और  ये  फिजा 
के  कतरे  कतरे  में  तूफ़ान  बे -करार  सा  है 
मैं किसको  अपने  गरीबां  के  चाक  दिखलाऊँ 
के  आज  दामन -ए -यजदान  भी  तार -तार  सा  है 
सजा -संवार  के  जिसको  हज़ार  नाज़  किये 
उसी  पर  खालिक -ए -कुनैन  शर्म -सार  सा  है 
सब  अपने  पाँव  पे  रख -रख  के  पाँव  चलते  हैं 
खुद  अपने  काँधे  पैर  हर  आदमी  सवार  सा  है 
जिसे  पुकारिए  मिलता  है  खान्दर  से  जवाब 
जिसे  भी  देखिये  माजी  के  इश्तेहार  सा  है 
हुई  तो  कैसे  बयाबान  में  आ  के  शाम हुई 
के  जो  मज़ार  यहाँ  है , मेरा  मज़ार  सा  है 
कोई  तो  सूद  चुकाए , कोई  तो  जिम्मा  ले 
उस  इन्किलाब  का , जो  आज  तक  उधार  सा  है 
कैफ़ी आज़मी !!! 

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