Thursday, December 22, 2011

बोधि का बोध !!!

साढ़े तीन हाथ की काया...
कोस कोस उसकी है माया...

उठ गिर रही सांस अनाया...
बोलो उसको कौन है जाया...

रोम रोम में राम समाया...
पल पल बदल रही है काया...

जिसने भीतर ध्यान लगाया...
उसने नश्वर सब जग पाया...

ये संवेदन जो नर कर पाया...
ये बोध हुआ तो बुद्ध कहलाया...

भावार्थ...



Wednesday, December 21, 2011

मौला !!!

उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...
लता तेरी हो फूल तेरे हो  सल्तनत तेरी हो...

हर एक जर्रा हो तुझसा जहाँ ...
हर एक बाब हो तेरा गुलिश्तां...
हवा तेरी हो जमीं तेरी हो मल्कियत तेरी हो...
उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...

भँवरे बजाते हों शंख जहाँ...
कोयले सजाती हो महफ़िल वहां....
ओस तेरी हो धुंध तेरी हो रवायत तेरी हो...
उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...

हर जुबान पे बस नाम तेरा हो...
आगाज़ तेरा हो अंजाम तेरा हो...
सीरत तेरी हो, सूरत तेरी हो शख्शियत तेरी हो...
उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...

भावार्थ...

Monday, December 19, 2011

तुम रहने ही दो !!!

तुम रहने ही दो !!!

क्या हुआ जो तुमने एक वादा किया...
मेरे साथ मोहब्बत का इरादा किया...
सह न पाओगी दर्द-ओ-गम...
चल न पाओगी दो कदम...
तुम रहने ही दो...

तन्हाईयाँ हैं इसमें हज़ार...
करना पड़ेगा खुद को निसार...
निभा न पाओगी एक कसम...
चल न पाओगी दो कदम...

तुम रहने ही दो...

टूट कर रेत सा बिखरना पड़ेगा...
ज़माने के तल्ख़ को सहना पड़ेगा...
भर न पाओगी चाक-ओ-जख्म...
चल न पाओगी दो कदम...
तुम रहने ही दो...


बन न पाओगी तुम हमदम...

तुम रहने ही दो !!!

भावार्थ...

Saturday, December 17, 2011

लकीर !!!

उस रोज...
मैं कितनी खुश थी...
मुझसे तेज मेरे कदम चल रहे थे...
उसके आने की ख़ुशी जैसे चुम्बक सी थी...
मैं उसी पुराने लिबास में निकल पड़ी उसके घर की तरफ...
खबर मिली की तुम लन्दन से लौट आये हो...
कितनी बावरी थी मैं भी...
ये भी न सोचा की वक़्त से क्या कुछ नहीं बदलता...
लोग भी तो बदल सकते हैं...
तुम भी तो बदल सकते हो...
चलते क़दमों के साथ खो गयी बीते दिनों में...
वो दिन जब दो लौ एक दिए में जली थी...
एक सार थी रूह दो लोगों की...
उस मद्धम सी पीली  शाम को...
अपने हाथ में हाथ लिए तुमने कहा था..
इन् लकीरों में एक लकीर इश्क की होती है...
यकीं दिलाने को तुमने हमदोनो के हाथ एक ब्राहमण को दिखाए...
उसकी बात ही तो सच मान बैठी थी मैं..
लो उसका घर आ गया...
मैं भी चली आई उसके दर तक एक बदहवासी में...
दस्तक दी तो एक लड़की ने दरवाज़ा खोला....
मैंने कहा  "करन" है ?
उसने मुड़ कर आवाज़ दी....
"हबी" देखो तुमसे कोई मिलने आया है, और चली गयी अन्दर....
अगले दो पल मैं वहां क्यों रुकी मुझे नहीं पता...
पत्थर बन कर शायद उस पत्थर को देखने जिसे मन में पूजती रही...
या उस जलती लौ  को देखने जिसने इस लौ को बुझा दिया था...
"करन" आया और बोला "तुम"...
मेरी साँसे जैसे भीतर ही भीतर हांफ रही थी...
लफ्ज़ जैसे होठो के सेहरा में गुम थे...
और आँखें जैसे फूट पड़ने को बेताब थी..
कदम लौट जाना चाहते थे मगर दिल मजबूर था कम्बखत...
वो नज़र नहीं मिला पा रहा था...
कुछ संकुचा के बोला "तुम अन्दर नहीं आओगी"
वो भूल गया था शायद मैं तो यही सोचती थी की में उसके अन्दर ही कहीं हूँ....
मैं रुक नहीं पायी और कहा "तुमने ऐसा क्यों किया" और रो पड़ी....
वो मेरे आंसूं न देख पाए दौड़ पड़ी उलटे कदम उसके दर से.,...
और सोच रही थी उस ब्राहमण की बात...
उसने कहा था तुम्हारी लकीरें मिलती सी है...
वो सच था शायद..
मगर मैं भूल गयी थी ...
लकीरों का खुद का वजूद कुछ नहीं होता......
मेरी मोहब्बत पत्थर पे लकीर थी ... 
"और"
उसकी मोहब्बत समन्दर पे लकीर थी...

भावार्थ...

Thursday, December 15, 2011

इब्तिदा-ए-इश्क !!!

कुछ लिखने की चाहत हो तो  हर्फ़ बदल जाएँ...
ब्रुश से रंगने की चाहत हो तो रंग बदल जाएँ...
अजनबी से मिलने की चाहत हो  तो   ढंग बदल जाएँ...
तो समझो इब्तिदा-ए-इश्क है  ...

उसकी खुशबू  तुम्हें खुद के पेहरन में आने लगे...
उसकी तपिश का एहसास खुद कि बाहों में आने लगे...
उसका अंदाज़-ए-बयाँ तुम्हें अजनबी में भी नज़र आने लगे...
तो समझो इब्तिदा-ए-इश्क है...

उसके जाने के बाद लगे कि एक बार बस वो फिर आये...
झूठे मूठे सपने ही सही उनको दिखाने वो फिर आये...
खुद के होने का यकीं दिलाने को लगे कि वो फिर आये...
तो समझो इब्तिदा-ए-इश्क है... 

भावार्थ ...
 













मिर्ज़ा ग़ालिब !!!

इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना...

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना...

मिर्ज़ा ग़ालिब !!!

वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें


वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो की न याद हो...

मोमीन !!!



पुरानी आदत है उसकी...

पुरानी आदत है उसकी...


मुझे बुला कर देर से आने की ...
मुझे रुला कर फिर मनाने की...
रूठ जाऊं तो काँधे पे सुलाने की...

पुरानी आदत है उसकी...

मेरे यकीं के लिए  झूठी कसम खाने की..

मेरी नक़ल बना कर मुझे चिढाने की...
अजीब शक्लें बना कर मुझे हँसाने की...
पुरानी आदत है उसकी...

उसकी आदतें कब मेरी आदतें बन गयी..
उसकी यादें कब मेरी आयतें बन गयी...
उसकी चाहतें कब मेरी इनायतें बन गयी...

मुझे पता भी न चला...
कब साल पल बन गए...

मुझे बुद्धू बनाने की...
मुझे जीना सिखाने की...
पुरानी आदत है उसकी... 

भावार्थ...

अज़ब हालत थे मेरे...

अज़ब हालत थे मेरे...
अजब दिन रात थे मेरे...
मगर में टूटा नहीं था...
क्योंकि तुम साथ थे मेरे..
मेरे सर के तलबगारों की नज़र ऐसी उठती थी..
की लाखों उँगलियाँ थी और हजारो हाथ थे मेरे...
में पत्थर का ताबूत था उनके मंदिर में...
न दिल था मेरे सीने में न कुछ जज्बात थे मेरे...
में किसी और से क्या उम्मीद रखता...
वही गेर थे जो हालत थे मेरे...
मुझे मुज़रिम बना के रख दिया झूठे गवाहों ने...
अज़ब हालत थे मेरे...

अनजान !!!

ए थके हारे समंदर...

ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता  क्यों नहीं...
सहिलो को तोड़कर बाहर...
तू निकलता क्यों नहीं...
तू मचलता क्यों नहीं...
तेरी सहिलो पे सितम की बस्तियां आबाद है..
सहर के मेमार सारे खानमा बर्बाद है...
ऐसी काली बस्तियों को...
तू निगलता क्यों नहीं...
तुझमें लहरें हैं न मौजे हैं न शोर...
जुर्म से बेज़ार दुनिया देखती है तेरी ओर...
तू उबलता क्यों नहीं...
ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता क्यों नहीं...

कैफ़ी आज़मी !!!

Wednesday, December 14, 2011

मजाज़

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं...
क्या समझती हो  तुमको भी भुला सकता हूँ मैं...

तुम अगर रूठो एक  तुमको मानाने के लिए...
गीत गा सकता हूँ में आंसू बहा सकता हूँ मैं...

तुम की बन सक्तियो हो हर महफ़िल में फिरदौस इ नज़र
मुझको ये दावा की ये की हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं...

आओ मिल कर इंकलाबी ताज़ा तर पैदा करें...
दहर पर इस तरह छा जायें की सब देखा करें...

मजाज़ !!!


Saturday, December 10, 2011

तुम्हारी याद...

तुम्हारी याद ...
जो आई मेरे दर्द के साथ....
उसकी दोस्त सी बनकर...
लहर सी थी तुम्हारी याद...
बढती गयी मेरे दर्द के साथ...
मगर रह गयी मेरे साथ...
उस दर्द के जाने के बाद...
तुम्हारी याद...

भावार्थ...

Thursday, December 8, 2011

तुम मुझे भूल भी जाओ तो हक है तुमको...

तुम मुझे  भूल भी जाओ तो हक है तुमको...
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...

मेरे दिल की मेरे जज्बात की कीमत क्या है..
इंज उलझे उलझे ख्यालात की कीमत क्या है...
मैंने क्यों प्यार किया तुमने क्यों प्यार किया..
इन परेशान सवालात की कीमत क्या है...

तुम मुझे इतना भी न बताओ तो ये हक है तुमको...
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...


तुम मुझे भूल भी जाओ तो हक है तुमको...

मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...
जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है...
जुल्फ-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है...
भूख और प्यास की मरी इस दुनिया में..
इश्क ही इक हकीकत नहीं कुछ और भी है..

तुंम आँख चुराओ तो ये हक है तुमको...
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मोहब्बत की है...

तुमको दुनिया के दर्द-ओ- गम से फुर्सत न सही...
सबसे उल्फत सही मुझसे ही मोहब्बत न सही ...
में तुम्हारी हूँ यही मेरे लिए  क्या कम है..
तुम मेरे हो मकर  रहो ये मेरी किसमत ना सही..
और दिल को जलाओ ये हक है तुमको..
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...

तुम मुझे भूल भी जाओ तो हक है तुमको...

मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...

साहिर लुधियानवी !!!

प्यार कभी इकतरफा होता है न होगा...

प्यार कभी इकतरफा होता है न होगा...
दो रूहों के एक मिलन की जुड़वां पैदाईश है ये ...
प्यार अकेला जी नहीं सकता...
ये जीता है तो दो में ...
मरता है तो दो मरते हैं...
प्यार एक बहता दरिया है...
झील नहीं है जिसको दो किनारे बाँध के बैठे रहते हैं...
सागर नहीं है किसका किनारा नहीं होता...
बस दरिया है जो बहता रहता है...
दरिया जैसे चढ़ जाता है ढल जाता है...
चलना ढलना प्यार में वो सब होता है...

पानी की आदत है ऊपर से नीचे की जानिब बहना...
नीचे से फिर  भाग के सूरत ऊपर उठना...
बादल बन आकाश में बहना...
कापने लगता है जब तेज हवाएं छेड़ें...
बूँद बूँद सा फिर बरस जाता है...

प्यार एक जिस्म के साज पे बजती गूँज नहीं है
न मंदिर की आरती है न पूजा है...
प्यार नफा है न लालच है...
न लाभ न हानि कोई...

गुलज़ार

न सोचा न समझा न सीखा न जाना...

न सोचा न समझा न सीखा न जाना...
मुझे आ गया खुद बा खुद दिल लगाना...

जरा देख कर अपना जलवा दिखाना...
सिमट कर न यहीं आ जाये ज़माना...

जुबान पर लगी हैं वफाओं की मुहरें...
ख़ामोशी मेरी कह रही है फसाना..

गुलों तक लगायी  है तो आसान है लेकिन...
हैं दुश्वार है लेकिन काँटों से दामन बचाना...

करो लाख तुम मातम-इ-नौजवानी...
अब नहीं  आएगा वो जमाना...

मीर ताकी मीर !!!



Wednesday, December 7, 2011

जाते जाते नज़र मिला गया वो...

बंद होठों से बोलना सिखा गया वो...
जाते जाते  नज़र मिला गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...


ठहरा हुए  दिल-ए-समंदर में मेरे...
संग-ए-उल्फत  गिरा  गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...

नूर-ए-इलाही की ख्हयिश थी ...
खायिश-ए-जिस्म जगा गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...


गुना-भाग का हुनर था हममें...
इक शौक-ए- इश्क लगा  गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...

सब को पढ़ता था किताब-ए-जेहेन...
बाब-ए-मोहब्बत सिखा गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...


आज़ाद रूह थी 'भावार्थ' तेरी...
पैराहन-ए-इश्क उढ़ा गया वो...


जाते जाते नज़र मिला गया वो...



भावार्थ...

Tuesday, December 6, 2011

तेरी ख़ुशी से अगर गम भी ख़ुशी न हुए...

तेरी ख़ुशी से अगर गम भी ख़ुशी न हुए...
ये जिंदगी मोहब्बत की जिंदगी न हुए...

खयाल यार सलामत तुझे खुदा रखे...
तेरे बगैर घर में कभी रौशनी न हुए...

सबा ये उनसे हमारा पयाम कह देना...
गए हो जब से सुबह शाम एक न हुए...

गए थे हम भी जिगर जलवागाह-ए-गाना में...
वो पूछते ही रहे हम से बात ही न हुई...


जिगर मुरादाबादी !!!

कितना हसीन गुनाह किये जा रहा हूँ मैं...

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ में...
कितना हसीन गुनाह किये जा रहा हूँ मैं...

मुझ से लगे है इश्क की अज़मत को चार चाँद....
खुद हुस्न को गवाह किये जा रहा हूँ मैं..

गुलशन परश्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़...
काँटों से भी निभाह किये जा रहा हूँ मैं...

मुझसे अदा हुआ है जिगर जुस्तजू का हक...
पर जर्रे को गवाह किये जा रहा हूँ मैं...

जिगर मुरादाबादी !!!


हम न नखत है न गुल हैं जो महकते जावें !!!

हम न नखत है न गुल हैं जो महकते जावें...
आग की तरह हैं  जिधर जावें दहकते जावें...

आज जो भी आवे है नज़दीक ही बैठे हैं तेरे...
हम कहाँ तक तेरे पहरे  से सरकते जावें...

बात अब वो है की बेवजह खफा हो के हसन...
यार जावे तो फिरग होश खिसकते जावें...


मीर हसन !!!

दिल मगर कम किसी से मिलता है...

आदमी आदमी से मिलता है...
दिल मगर कम किसी से मिलता है..

आज क्या बात है की फूलों का
रंग तेरी हंसी से मिलता है...

भूल जाता हूँ में सितम उसके...
वो कुछ इस सादगी से मिलता है...

मिल के भी जो नहीं मिलता...
टूट कर दिल उसी से मिलता है...

आदमी आदमी से मिलता है...

दिल मगर कम किसी से मिलता है..


जिगर मुरादाबादी !!!

ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजे...

एक लफ्ज़ मोहब्बत का अदना ये फ़साना है...
सिमटे तो दिल-इ-आशिक फैले तो ज़माना है...

आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं...
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है...

ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजे...
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

दिल संग-ए-मलामत का हर चन्द निशाना है...
दिल फिर भी मेरा दिल है दिल ही तो जमाना है...

आंसू तो बहुत से हैं आँखों में जिगर लेकिन...
गिर जाए वो मोती है रह जाए सो  दाना है...

जिगर मुरादाबादी !!!

Monday, December 5, 2011

जिंदगी से यही गिला है मुझे !!!

जिंदगी से यही गिला है मुझे...
कि तू बड़ी देर से मिला है मुझे...
हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं...
एक मुसाफिर ही काफिला है मुझे...
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल...
हार जाने का हौसला है मुझे...

अहमद फ़राज़ !!!

मैं क्या दो रोज का मेहमान तेरे शहर में था ...

मैं क्या दो रोज का मेहमान तेरे शहर में था ...
अब चला हूँ तो कोई फैसल कर भी न सकूं...
जिंदगी की ये घडी टूटता पुल हो जैसे...
ठहर भी न सकूं और गुज़र भी न सकूं...

अहमद फ़राज़ !!!

Saturday, December 3, 2011

किस तरह से रोये... !!!

तुम से बिछुड़ के हम  किस किस तरह से रोये...
लोग समझ ना पाए इसलिए  हँसते हुए  रोये...

कोई सुन न पाए मेरे दर्द तेरे शहर के कूंचे पे...
दूर किसी खंडहर की दीवार से लग कर रोये...

मुझको मालूम था सब रोने का सबब पूछेंगे...
अपनों से कहीं दूर हम तन्हाई से लिपट कर रोये...

याद आती रही रुलाती रही होश में हमको...
मयखाने में बेसुध होकर रात भर नशे में रोये...

तुम से बिछुड़ के हम किस किस तरह से रोये...
लोग समझ ना पाए इसलिए हँसते हुए रोये...


भावार्थ... 

मुझे तुम क्या कहते हो !!!

ये अलफ़ाज़ ये शेर या फिर जिनको तुम ग़ज़ल कहते हो..
मुझे नहीं मालूम इनको और तुम क्या क्या कहते हो...

मेरे आंसू, मेरी तन्हाई , मेरा दर्द लिए ये हर्फ़...
बूँद बूँद ही है जिनको तुम समंदर कहते हो...

वो किताब, उसमें सुर्ख फूल और वो मोर के पंख  ...
नज़्म हैं मेरी जिनको तोहफा-इ-मोहब्बत कहते हैं...

वो खाब, वो खयाल, वो तेरा खुमार जिंदगी में ...
उनमान है मेरे के जिनको तुम तसव्वुर कहते हो...

वो खुशबू, वो रंग, वो नशा जो बिखरा सा हुआ है...
स्याही है मेरी जिनको तुम सुरूर-ए-ग़ज़ल कहते हो...

ये नजाकत, ये हया, ये तेरी सादगी जो छुई है मैंने...
रूह-ए-शायरी है मेरी जिनको तुम अपनी अदा कहते हो...

एक तलाश, एक कैफियत, एक सोच जो तैरती रहती है...
मेरा जुनू है जिसको तुम मेरी राह-ए-मंजिल कहते हो...

ये आईना, ये परछाई, ये खुद सा होने का वहम...
मैं ही हूँ तुम में जिसे अक्स कहते हो, 'भावार्थ' कहते हो...

भावार्थ...

अहमद फ़राज़

अगरचे जोर हवाओं ने दाल रखा है...
मगर चराग ने लौ को संभाल रखा है...

भले दिनों का भरोसा क्या रहें न रहें...
सो मैंने रिश्ते-ए-गम को बहल रखा है...

हम ऐसे सादा दिलो को वो  दोस्त हों या खुदा...
सबने वादा-ए-पर्दा दाल रखा है..

फिजा में नशा ही नशा हवा में  रंग ही रंग...
ये किसने अपना पैराहन उछाल रखा है...

फ़राज़ इश्क की दुनिया तो खुबसूरत थी...
ये किसने फितना-इ- हिज्र-ओ-विसाल रखा है...


वहसते बढती गयीं हिज्र के आजार के साथ...
अब तो हम बात भी करते नहीं गम खार के साथ...

इसकदर खौफ है इस शहर की गलियों में की लोग...
चाक सुनते हैं तो लग जाते हैं दीवार के साथ...

हमको उस शहर में तामीर का सौदा है जाना...
जो दीवार में चुन देते हैं मेमार के साथ...

अहमद फ़राज़...

Friday, December 2, 2011

उससे बिछुड़ के में यूँ घर आया...

उससे बिछुड़ के में यूँ घर आया...
आँख रो पड़ी और गला भर आया...
कह तो दिया उसे आखरी अलविदा...
सोचता हूँ आखिर मैं क्या कर आया...
उसने रोकने की नाकाम कोशिश की...
मगर में उसके दर से बस बढ़ आया...
कब तक बहते हुए पानी को रोकता...
में उसी बहाव के संग दूर तक बह आया...
उससे बिछुड़ के मैं यु घर आया...
आखं रो पड़ी और गला भर आया...

भावार्थ...

मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...

मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...



मैं सेहरा-ए-खायिश और वो समन्दर है...
बुझाने को प्यास अपनी अब कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


सुना है अब खुदा की पत्थर सी आँखें हैं...
अपने चाक-ए-दिल दिखलाने अब कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


हर जर्रे में उसका वहम-ए-एहसास ...
उसका  दीदार करने को  कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


इस जिस्म में गढ़ा है नश्तर बेवफाई का...
उसके दर के सिवा मरने अब कहाँ जाऊं...

मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


भावार्थ

Thursday, December 1, 2011

तुम हो !!!

जिस सिम्त भी देखूं नज़र आता है कि तुम हो...
ना जाने यहाँ कोई तुम सा  है कि तुम ही...

ये खाब है खुशबू है कि झोंका है कि पल है...
ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो...

देखो ये किसी और की आँखें है कि मेरी...
देखूं ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो...

ये उम्र-ए-गुरेजा है कहीं ठहरे तो ये जानू...
हर सांस में मुझे  लगता है कि तुम हो..

एक दर्द का फैला हुआ सेहरा है कि में हूँ...
एक मौज में आया हुआ दरिया हूँ कि तुम हो...

ए जाने फ़राज़ इतनी भी तौफिक  किसे थी..
हमको गम-ए-हस्ती भी गवारा कि तुम हो...

अहमद फ़राज़ !!!

Wednesday, November 30, 2011

होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे...

बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे...


होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे...



[ baazeechaa = play/sport, atfaal = children ]


इक खेल है औरंग-ए-सुलेमान मेरे नज़दीक...

इक बात है 'एइजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे...



[ auraNg = throne, 'eijaz = miracle ]



जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर...

जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-आशिया मेरे आगे...



[ juz = other than, aalam = world, hastee = existence,

ashiya = things/items ]


होता है निहां गर्द में सेहरा मेरे होते...

घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे...



[ nihaaN = hidden, gard = dust, sehara = desert, jabeeN = forehead ]



मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ?

तू देख के क्या रंग तेरा मेरे आगे...


सच कहते हो, खुद्बीन-ओ-खुद_आरा न क्यों हूँ ?

बैठा है बुत-ए-आइना_सीमा मेरे आगे...



[ KHudbeen = proud/arrogant, KHud_aaraa = self adorer,

but = beloved, aainaa_seemaa = like the face of a mirror ]


फिर देखिये अंदाज़-ए-गुल_अफ्शानी-ए-गुफ्तार...

रख दे कोइ पैमाना-ओ-सहबा मेरे आगे...



[ gul_afshaanee = to scatter flowers, guftaar = speech/discourse,

sahaba = wine, esp. red wine ]


नफरत का गुमान गुज़ारे है, मैं रश्क  से गुज़रा...

क्यों कर कहूं, लो नाम न उसका मेरे आगे...



[ gumaaN = doubt, rashk = envy ]



ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र...

काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे...



[ kufr = impiety, kaleesa = church/cathedral ]



आशिक हूँ, पे माशूक_फरेबी है मेरा काम...

मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे...



[ farebee = a fraud/cheat ]



खुश होते हैं पर वस्ल में यों मर नहीं जाते...

आयी शब्-ए-हिजरां की तमन्ना मेरे आगे...



[ hijr = separation ]



है मौज_जान  इक कुल्ज़ुम-ए-खून, काश, यही हो...

आता है अभी देखिये क्या-क्या मेरे आगे...



[ mauj_zan = exciting, qulzum = sea, KHooN = blood ]



गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँहों में तो दम है...

रहने दो अभी साघर-ओ-मीना मेरे आगे...



[ jumbish = movement/vibration, saaGHar-o-meena = goblet ]



हम पेशा-ओ-हम_मशरब-ओ-हम_राज़  है मेरा...

'ग़ालिब' को बुरा क्यों कहो अच्छा मेरे आगे !



[ ham_pesha = of the same profession, ham_masharb = of the

same habits/a fellow boozer, ham_raaz = confidant ]

 
'ग़ालिब'

आज कल हमारी मोहब्बत का जिक्र है...

आज कल हमारी मोहब्बत का जिक्र है...
तुझे इश्क  और मुझे ज़माने की फ़िक्र है...

किस तरह पलता  मेरा इश्क दुनिया में..
उसे चिराग बुझाने मुझे जलाने की फ़िक्र है...

इश्क के दो पहलू इसी तरह से रहे... 
उसे हवस और मुझे इश्क निभाने की फ़िक्र है...
ये नहीं की उसके इरादे नेक नहीं...
मुझे हवा की उसे भीतर के आदम की फ़िक्र है...


भावार्थ...

जालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा...

आंख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा..
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा...

डूबते डूबते क्षित को उछाल अड़े दूं..
में न अहिं तो कोई तो साहिल पे उतर जाएगा...

जिंदगी तेरी अत है तो हए जाने वाला..
तेरी बक्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा...

जब्त लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का फ़राज़...
जालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा...

अहमद फ़राज़ !!!


Thursday, November 24, 2011

जो था पसंद हमें न वो काम मिला...

जो था पसंद हमें न वो काम मिला...
नापसंद था जो वो हमें तमाम मिला...

जिंदगी इस बे-इख्तियारी में रही  ...
काम के आदमी को न काम का  काम मिला...

कौम की चक्की में पिसते रहे हम ...
सजदे को न खुदा मिला न ही राम मिला...

राह-ए-इश्क पे निकल गए इतना...
न आगाज़ नसीब न ही अंजाम मिला...

जिंदगी से जिंदगी चुराती रही उम्र ...
उसकी बेवफाई का  न कोई पैगाम मिला...

जो था पसंद हमें न वो काम मिला...
नापसंद था जो वो हमें तमाम मिला...


भावार्थ

नज़्म उलझी हुई है सीने में...

नज़्म उलझी हुई है सीने में...


मिसरे अटके हुए है होंठो पर...

उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह...

लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं...

कब से बैठा हुआ हूँ में जानम...

सादा कागज़ पे लिख के नाम तेरा...

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है...

इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी?

गुलज़ार  !!!



Wednesday, November 23, 2011

शायर-ए-फितरत हूँ में !!!

शायर-ए-फितरत हूँ में जब फ़िक्र फरमाता हूँ मैं...
रूह बन कर जर्रे जर्रे में समां जाता हूँ मैं...

आके तुम बिन  इस तरह घबराता हूँ मैं..
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं...

तेरी महफ़िल तेरे जलवे फिर तकाजा क्या जरूर ...
ले उठा जाता हूँ जालिम ले चल जाता हूँ मैं...

हाय री मजबूरियाँ करके मोहब्बत के लिए...
मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूँ मैं...

एक दिल है उअर तूफ़ान-ए-हवादिस ए जिगर...
एक शीशा है की हर पत्थर से टकराता हूँ मैं ..

जिगर मोरादाबादी !!!

किसी का यु तो हुआ कौन हुआ

किसी का यु तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी...
ये हुस्न-ओ-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी...

किसी का यु तो हुआ कौन हुआ उम्र भर फिर भी...

हज़ार बार जमाना इधर से गुज़ारा है...
नयी नयी सी है  कुछ देर इधर रहगुज़र फिर भी...

तेरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है...
उतर गया रग-ए-जाँ में ये निश्तर  फिर भी...

किसी का यु तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी...
ये हुस्न-ओ-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी...

फ़िराक गोरखपुरी...

Tuesday, November 22, 2011

ये जो कौलो-करार है क्या है...

ये जो कौलो-करार है क्या है...
शक्ल है या एक वार है क्या है...

ये जो उठता है दिल में रह रह कर..
अब्र है या गुबार है क्या है...

जेर-इ-लब एक झलक तबस्सुम की...
बर्फ है या शरार है क्या है...

कोई दिल का मकाम समझाओ..
घर है या रहगुज़ार है क्या है...

फ़िराक गोरखपुरी !!!

फ़िराक गोरखपुरी

फिराक एक नयी सूरत निकल तो सकती है...
वो आँख कहती है दुनिया बदल तो सकती है...
कड़े हैं कोस बहुत मंजिल-ए- मोहब्बत के..
मिले न छाव मगर धुप ढल तो सकती है...
सुना है बर्फ के टुकड़े हैं दिल  हसीनों के...
कुछ आंच पा के चांदी पिघल तो सकती है...

फ़िराक गोरखपुरी !!!

तो और क्या होगा !!!

बेवा से बेवफाई का सिला  क्या  होगा...
न फटेगी धरती  तो फिर और क्या होगा...

बचपन को बच्चो से छीन कर जो ...
न बाढ़ से उजड़ेंगे  तो और क्या होगा...

हमसफ़र से मोहब्बत का दोखा कर...
तन्हाई से न तड़पेंगे तो और क्या होगा...

पाक रिश्तो को तिनके का सहारा दे कर...
तूफ़ान में न बिखरेगे तो और क्या होगा...

भुला के किसी शरीफ का एहसान जो ...
न दर दर वो भटकेंगे तो और क्या होगा...

चुपके से  वहशियत को देते है अंजाम जो...
लाइलाज बेमारी से न मरेंगे तो और क्या होगा...

न नूर की इबादत न पत्थर को सजदा...
वो बौराते  हुए न फिरेंगे तो और क्या होगा...

बेवा से बेवफाई का सिला क्या  होगा...
न फटेगी धरती  तो फिर और क्या होगा...

भावार्थ

तोड़कर अहद-इ-करम न आशना हो जायिए.. !!!

तोड़कर अहद-इ-करम न आशना हो जायिए..
बंदा परवर जाईये अच्छा खफा हो जायिए...

राह में मिलिए कभी मुझ से तो अजरा-ए-सितम
होठ अपने काट के फ़ौरन जुदा हो जाईये..

जी में आता ही उस शोख-इ तगाफुल केश से..
अब न मिलिए फिर कभी और बेवफा हो जाईये...

हाय री बे-इख्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर..
उर सरापा नाज़ से क्यों कर खफा हो जाईये...

तोड़कर अहद-इ-करम न आशना हो जायिए..
बंदा परवर जाईये अच्छा खफा हो जायिए...

जोश मलीहाबादी !!!

तार्रुफ़ !!!

खूब पहचान लो असरार हूँ मैं...

जिंस-ए- उल्फत का  तलबगार हूँ मैं...

इश्क ही इश्क है दुनिया मेरी... 
फितना-ए-अक्ल से बेज़ार हूँ मैं...


छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-आलम ... 
साज़-ए-फितरत का वही तार हूँ मैं...


ऐब जो हाफ़िज़-ओ-खय्याम में था 
हाँ कुछ इस का भी गुनाहगार हूँ में ...


ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए -आदम... 
ज़िंदगी है तो गुनाहगार हूँ मैं... 

मेरी बातों में मसीहाई  है...
लोग  कहते हैं की बीमार हूँ मैं...


एक लपकता हुआ शोला हूँ मैं...
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं...


असरार उल हज "मजाज़" 

बहला भी गए तडपा भी गए...

तस्कीन-ए-दिल-ए-महजू  न  हुई  वो  साइ-ए-करम  फरमा  भी  गए...


उस साइ-ए-करम का क्या कहिये बहला भी गए तडपा भी गए...



एक अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके...

यहाँ हम ने ज़बान ही खोली थी वहां आँख  झुकी शरमा भी गए...



आशुफ़्तगी-ए-वहशत  की  क़सम  हैरत की क़सम हसरत की क़सम...

अब आप कहे  कुछ  या  न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम  पा भी गए...



रूदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन  से  हम  क्या कहते क्यों न कहते ....

एक हर्फ़ न निकला होठों से से  और  आँख में  आंसू आ भी गए...



अरबाब-ए-जूनून  पे फुरकत  में अब क्या कहिये क्या क्या गुज़रा ...

आये थे सवाद-ए-उल्फत में कुछ्ह खो भी गए कुछ पा भी  गए...



ये  रंग-ए-बहार-ए-आलम  है  क्या  फिक्र  है  तुझ  को  ए साकी ...

महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ्ह आ भी गए...



इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में...

सब जाम-बा-काफ बैठे रहे हम पी भी गए छलका भी गए...


असरार उल हक उर्फ़ "मजाज़"

अब अक्सर चुप चुप रहे हम...

अब अक्सर चुप चुप रहे हम...
यु ही कहो लब खोले हैं...

पहले फ़िराक को देखा होता....
अब तो अभूत कम बोले हैं...

दिन में गम को देखने वालो..
अपने अपने हारों का...

जाओ न तुम इन खुश्क आँखों पे...
हम रातों को रोले  हैं...

पहले फ़िराक को देखा होता....

अब तो अभूत कम बोले हैं...


गम का फ़साना सुनने वालो..
आखिर शब् आराम  करो...

कल ये कहानी  फिर छेड़ेंगे ...
हम भी जरा अब सो लेते हैं...

पहले फिराक देखा होता...
अब तो बहुत कम बोले हैं...


फ़िराक गोरखपुरी !!!


मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाकात का आलम...

मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाकात का आलम...
खामोश अदाओं में वो जज्बात का आलम...

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए- जज्बात का आलम..
कुछ कहते  हुए उनकी  हर बात का आलम...

वो नज़रों ही नज़रों में सलावत की दुनिया...
वो आँखों ही आँखों में जवावात का आलम...

मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाकात का आलम...

खामोश अदाओं में वो जज्बात का आलम...


जिगर मुरादाबादी !!!

Monday, November 21, 2011

एक ऐसी लोरी लिखूं... !!!

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जो तुमको खाब दिखाए...
दूर देश से जा कर...
जो परियों की दुनिया लाये...

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जिसे सुनकर तुम सो जाओ...
आँखों में आंसू न रहे कभी...
तुम उसके बोलों में खो जाओ...

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जो तुमसी मीठी सुरीली हो...
जो धीमी धीमी सी आहट हो..
जो खिलोनो सी ही सजीली हो...

एक ऐसी लोरी लिखूं...
जो तुमको खाब दिखाए...
दूर देश से जा कर...
जो परियों की दुनिया लाये...

भावार्थ

नन्हा सा खाब !!!

मोहब्बत के आसमा में...
उल्फ़त के बादल उमड़ते रहे...
पाक रिश्ते के इर्द गिर्द...
प्यार की मदहोशी बिखरी...
इश्क ही इश्क था दामन तले...
दो रूह बस इकसार हो गयी...

वही एकसार नन्हा सा खाब हो तुम...

जो साया है मोहब्बत का...
जो परछाई है उल्फत की...
जो वजूद है रिश्ते का...
जो निशानी है प्यार की...
जो परछाई है इश्क की...


वही एकसार नन्हा सा खाब हो तुम...

जो खुदा का नूर है...
जो शिव का कनेर है...
जो इबादतों का स्वरुप है...
जो प्रणव का तोहफा है...
जो अवंतिका की याद  है...

वही एकसार नन्हा सा खाब हो तुम


भावार्थ

आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे !!!

आपकी  नज़रों  ने समझा प्यार के काबिल मुझे ...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

जी हमें मजूर है आपका ये फैसला..
कह रही है हर नज़र बंद परवर शुक्रिया

हस के अपनी जिंदगी में कर लिया शामिल मुझे...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

आपकी मंजिल हूँ में मेरी मंजिल आप हैं...
क्यों में तूफ़ान से दारू मेरी साहिल आप हैं...

कोई तुफानो से कह दे मिल गया साहिल मुझे..
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

पड़ गयी दिल पे मेरे आपकी परछाईयाँ ...
हर तरफ बजने लगी सेकड़ों  शहनायियाँ ...

दो जहाँ की खुशियाँ हो गयी हांसिल मुझे...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

आपकी  नज़रों  ने समझा प्यार के काबिल मुझे ...
दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे...

राजा मेहँदी अली खाँ !!! ( फिल्म : अनपढ़)

He wrote some other beautiful songs such as...

आ गले लग जा की ये हंसी रात फिर हो न हो... (मेरा साया)
मेरे पिया गए रंगून...(रंगून )

Raja Mehdi Ali Khan was the first lyricist to introduce Aap in film songs, such as Aap ki nazron…. (Anpadh), Aap kyon roye (Woh Kaun Thi?), Aap ne apna banaya (Dulhan Ek Raat Ki).

Sunday, November 20, 2011

क्या पाया और क्या खोया !!!

शोहरत की तमन्ना...
दौलत की चाह ...
या फिर...

हस्ती बनाने का फितूर...
या किसी अफकार की तलब...
कुछ ऐसी है...

जैसे पपीहे को बूँद...
या पतंगे को लौ..

मिलती तो है मगर...

उस मकाम पे सुध नहीं होती...
कि क्या पाया और क्या खोया...

भावार्थ

Monday, November 7, 2011

उनकी आँखों में !!!

उनकी आँखों में जब नमी देखी...
हुस्न के चार सू गमी देखी...

कौन सी बात वो छुपाये हैं..
आने जाने में अब कमी देखी...

उनकी आँखों में जब नमी देखी...
हुस्न के चार सू गमी  देखी...

बेसबब जब वो मुस्कुराने लगे...
अब के कुछ बात बनी सी देखी...

उनकी आँखों में जब नमी देखी...
हुस्न के चार सू गमी  देखी...

रुके रोशन पे इस कदर साए...
फूल पर धूल सी जमी देखी...

हुस्न के चार सू गमी देखी...
उनकी आँखों में जब नमी देखी...

हजरत !!!









बेसब्र तमन्ना !!!

वो कौन सा सजर है तेरा जहाँ न इश्क बेशुमार हो ..
वो कौन सा मंजर है तेरा जहाँ न  तेरा खुमार हो...

रात की बेसुध तन्हाई नर्म बाहों में कैद हो..
वो कौन सा पल है जिसमें  न तेरा  प्यार हो ...

आहट भी जहाँ दिल की सुनायी देने लगे...
वो कौन सा पहर है जब न तेरा इंतज़ार हो ...

उठ उठ कर बेसब्र तमन्ना मचली है मेरी...
वो कौन सा पहलू है जहाँ न तेरा इज़हार हो ...

कैद कर लो अपने ख्यालो में मुझे मेरी जाँ...
वो कौन सा खाब है जिसमें न तेरा इकरार हो...


वो कौन सा सजर है तेरा जहाँ न इश्क बेशुमार हो ..
वो कौन सा मंजर है तेरा जहाँ न  तेरा खुमार हो...



भावार्थ 

Saturday, October 29, 2011

भावार्थ शैली का आगाज़ !!!

तुम हू-ब-हू मुझसे नज़र आते हो मेरे दोस्त ...
फिर क्यों ...
मुझे भावार्थ और तुमको आईना कहते है लोग...

कब तक युही वक्त जाया करोगे पपीहे ...
इस बार...
थार की तपिश वो इक बूँद भी पी लेगी... 

सदियों को मुट्ठी में कैद कर के बैठा है वक़्त...
और तुम कहते हो..
ये वक़्त बस एक पल में गुज़र जाएगा...

जूनून-ए-इमा से न टकराना हुजूम...
तब भी और आज भी...
सरफरोशी को मुट्ठी भर लोग ने ही अंजाम दिया है...

साज जिनसे कितनी ही रूहें सुनी गयी...
जानते हो...
उन साजो में छुपी शक्लें किसी ने नहीं देखी.

बालिश्त भर खायिशों की जिद्दो-जहद इतनी है तुम्हारे लिए ...
सोचो कुछ थे...
जो सिकंदर बनने का खाब जी गए जिंदगी में... 

भावार्थ


ग़ज़ल !!!

मेरा गम जो बनी ग़ज़ल तो भी अच्छी थी...
वो इज़हार-ए-ख़ुशी बनी  तो भी अच्छी थी...
दो जून का सहारा है मेरे अपनों का ये ग़ज़ल...
मेरे अलफ़ाज़ उनका लुफ्त बनी तो भी अच्छी थी...

गम-ए-दांस्ता पे जिसके लोग वाह-२ किया करते है ...
उसी अभागे  को यहाँ लोग शायर कहा करते हैं...
सदियों में मिला है चंद को मीर-ओ-ग़ालिब का मकाम...
जिसकी खायिश में करोडो शायरी किया करते हैं... 

जो तुमको है  जूनून लिखने और सुनाने का ...
ये शौक है तो बेहतर है कहीं रोजगार न बने ...
बाप दादाओं की साख ले डूबे हैं कुछ सर फिरे...
फिजूली का जायका तुम्हारा अफकार न बने...

मेरा गम जो बनी ग़ज़ल तो भी अच्छी थी...
वो इज़हार-ए-ख़ुशी बनी  तो भी अच्छी थी...
दो जून का सहारा है मेरे अपनों का ये ग़ज़ल...
मेरे अलफ़ाज़ उनका लुफ्त बनी तो भी अच्छी थी...




भावार्थ 




जिंदगी...

मकसद से जो मेरे उफनती है जिंदगी...
उसूलों से वही फिर मेरे डरती है जिंदगी...
आजमाती है  दुनिया की कसौटी पे जुनूँ मेरा...
और ढह जाती है पानी सी फिर वही जिंदगी...

भावार्थ... 

Thursday, October 27, 2011

वेल्डिंग और दिवाली !!!






उजाले की ओट में वो नन्हा सा दिया नहीं दीखता...
पुटाश के शोर में गरीबी का दर्द नहीं चीखता...
सलीम का तो हर दिन ही है चिंगारियों से भरा ...
वेल्डिंग और दिवाली में उसे खास फर्क नहीं दीखता...

कौन अब राम की राह बटोहेगा...
कौन अब मंगल गीत गायेगा...
कौन दीपो से संजोयेगा घर द्वार..
कौन इस महंगाई में दिवाली मनायेगा...

हजारो की मिठाई खायी...
लाखों के पटाखे टूटे...
हुए चंद  खुशनुमा लोग...
करोडो दिल भूख से रूठे...

आज अँधेरे की रौशनी में दिवाली मनाई...
गाँव ने फिर शहर को बिजली  दे दी भाई..
राम का शहर तो पता नहीं मुझे मगर ... 
अयोध्या में लोगो ने सिर्फ मोमबती जलाई...


भावार्थ !!!

Sunday, October 16, 2011

वही कहानी है !!!

राह नयी है लेकिन मंजिल वही पुरानी है...
नए किरदार लिए फिरसे वही कहानी है...
खाब-ओ-ख्याल बस गुबार भर है इंसा के...
और अब पा कर भी कुछ नहीं हासिल...
सदियों से चलती आई युहीं जिंदगानी है... 

भावार्थ 




Saturday, October 15, 2011

उसके इर्द गिर्द !!!

राहत-ए-खुदा है जो गर तो उसके इर्द गिर्द...
चाहत-ए-जिंद  है जो गर  उसके इर्द गिर्द...
न नूर ही देखा , न पत्थर को सजदा...
इबादत है जो मेरी तो उसके इर्द गिर्द ...

भावार्थ 

Thursday, October 13, 2011

झूठी मूटी नींद में देखे !!!

झूठी मूटी नींद में देखे कुछ सपने झूठे मैंने भी...
सच्चे रिश्तो में है देखे कुछ अपने झूठे मैंने भी...
मिटटी की बुत है मिटटी की इस कलियुग में...
पत्थर से है बहते हैं देखे कुछ झरने झूठे मैंने भी...

भावर्थ 

Monday, October 10, 2011

जिंदगी का एक ये नन्हा बुलबुला..




मौत के इर्द गिर्द मचलता रहता है...
जिंदगी का एक ये नन्हा बुलबुला...

साए सा वजूद लिए अपनी धुन में... 
बेफिक्र है मौत के पैने कांटो से...
जिंदगी का एक ये नन्हा बुलबुला...  

खाब का आशियाँ बुना इसने  ...
फिर सपनो को हासिल किया जिसने...
मंजिल-ए-मौत की तरफ बढ़ता...
जिंदगी का एक ये नन्हा बुलबुला...

तकदीर बनाता तामीर उठाता...
कायनात मुठी में लिए फिरता ...
बस रेत से खुद को बहलाता...
जिंदगी का एक ये नन्हा बुलबुला...

जो सच है वो हकीकत नहीं लगती...
जो हकीकत है उसे झूठा कहते हैं सब...
मौत तू झूठी है युही गुनगुनाता जाता...
जिंदगी का एक ये नन्हा बुलबुला..

भावार्थ 






Sunday, October 2, 2011

जाम ऐसा तेरी आँखों से अता हो जाए...

जाम ऐसा तेरी आँखों से अता हो जाए...
होश बाकी  रहे और नशा भी हो जाए...

इस तरह मेरी तरफ मेरा मसीहा देखे...
दर्द दिल ही में रहे और दावा हो जाए..

जिंदगानी को मिले कोई हुनर ऐसा भी...
सब में मौजूद भी हो और फना हो जाए...

मोजजा काश दिखा दे ये निगाहें मेरी...
लफ्ज़ महफूज़ रहे बात अदा हो जाए...

डा. नजहत अंजुम !!!




ये हाल है तो कौन अदालत में जाएगा...

इन्साफ जालिमों की हिमायत में जायेगा...
ये हाल  है तो कौन अदालत में जाएगा...

दस्तार नोंच नाच के एहबाब ले उड़े...
सर बच गया है ये भी शराफत में जायेगा...

दोजख के इंतजाम में उलझा है रात दिन..
दावा ये कर रहा है की जन्नत में जाएगा...

खुशफहमियों की भीड़ में तू  भूल क्यों गया..
पहले मरेगा फिर कहीं जन्नत में जाएगा...

वाकिफ है खूब झूठ के फन से ये आदमी...
ये शख्श एक रोज जरूर शियासत में जायेगा...

राहत इन्दौरी  !!!









इन्साफ जालिमों की हिमायत में जायेगा...
ये हाल  है तो कौन अदालत में जाएगा...

दस्तार नोंच नाच के एहबाब ले उड़े...
सर बच गया है ये भी शराफत में जायेगा...

दोजख के इंतजाम में उलझा है रात दिन..
दावा ये कर रहा है की जन्नत में जाएगा...

खुशफहमियों की भीड़ में तू  भूल क्यों गया..
पहले मरेगा फिर कहीं जन्नत में जाएगा...

वाकिफ है खूब झूठ के फन से ये आदमी...
ये शख्श एक रोज जरूर शियासत में जायेगा...

राहत इन्दौरी  !!!









हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है..

हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है...
हम अब तनहा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है...
अभी जिन्दा है मेरी माँ मुझे कुछ भी नहीं होगा...
जब घर से निकलता हूँ  दुआ भी साथ चलती है...


ये सेहरा  है मियां यहाँ  चालाकी नहीं चलती...
यहाँ मजनू की चल जाती है लैला की नहीं चलती...
टीम यहाँ न ढूढों  कोई लंगड़ा आदमी ...
जहाँ खुद्गार्गी होती है वहां बैसाखी नहीं चलती...

अजब दुनिया है ना-शायर  यहाँ देखो सर उठाते हैं ...
और जो शायर है वो महफ़िल में दरिया उठाते हैं...
तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कान्धा नहीं देते...
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं...

इस तिलिस्म में जो हरा था वो सूखा निकला...
उसकी खिदमत में हर अंदाज़ ही रुखा निकला...
एक निवाले के लिए जिसे मैंने मार दिया...
वोह परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला...

मौला ये तमन्ना है जब मैं जान से जाऊं...
जिस शान से आया हूँ उसी शान से जाऊं...

बच्चो की तरह पेड़ की शाखों से कूदूं..
परिंदों की तरह उड़ता खिलायाँ से जाऊं...

हर शब्द महके लिखा हुआ मेरा...
मैं लिपटा हुआ यादो की लोबान से जाऊं...

माँ जिन्दा देखेगी तो चीख पड़ेगी...
पीठ में झकम लिए कैसे मैदान से जाऊं...

खिले हुए फूल का क्या भरोसा..
न जाने कब इस गुल दान से जाऊं...



मुन्नवर राणा 

बड़े अजीब हैं...

दोस्तों की तस्वीर लगाते हुए लोग...
उन्हीं से मिलने को कतराते हुए लोग...
बड़े अजीब हैं...

पत्थर पे सर झुकाते हुए लोग...
बुजुर्गों को न अपनाते हुए लोग..
बड़े अजीब हैं... 

अपने इश्क की कहानी सुनाते हुए लोग...
उसी इक शख्स से झुंझलाते हुए लोग...
बड़े अजीब हैं...

ये लोग जो हम है जो तुम हो...
ये लोग जो पढ़ के फिर भूल जायेंगे...
बड़े अजीब हैं...

भावार्थ 


Monday, September 5, 2011

हम पढ़ रहे थे खाब के पुर्जों को जोड़ के...
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के...

इक बूँद जहर को फैला रहे हो हाथ ...
देखो कभी खुद अपने बदन को निचोड़ के...

आगाज़ क्यों किया था सफ़र उन खाबों का...
पछता रहे हो सब्ज जमीनों का छोड़ के...

कुछ भी नहीं जो खाबों की तरह दिखाई दे...
कोई नहीं जो हमको जगाये  झझोंड के...

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया...
अभी भी वक़्त है ले जाओ कश्तियों को मोड़ के...

शहरयार ... 



Friday, August 26, 2011

मंडी-ए-इमा !!!

कई दिन भूखे रहने के बाद जब...
अन्ना में सोचने की सामर्थ्य न रही...
जब भीड़ की चीख उससे सुनी न गयी...
जब लगा सरकारी रुपी भेंस बहरी हो गयी...
अन्ना निकल पड़ा अपना इमाँ लेके...
बाज़ार में जिसे लोग मंडी-ए-इमान कहते हैं...
खरीदने वाले हजार्रों थे मगर कोई बेचने वाला न था...
सफ़ेद रेशमी पोशाकों में...
ऊँची कुर्सियों के गलियारिओं में...
खरीदने को जैसे होड़ लगी हो...
कहाँ मिलता है कोहिनूर-ए-इमाँ इस जहां में...
बचा ही कहाँ है इमान आज कल...
मगर इफ्तिहार में मगरूर थे सब के सब...
अन्ना वहां से भूखा लौट गया...

अनशन का दसवां दिन...


Friday, August 19, 2011

इसे सिर्फ आग-ए-इन्कलाब कहिये...!!!

न सिर्फ इसे आह की  हवा कहिये...
न सिर्फ इसे चाक-ए-दवा कहिये...
जो उठ रहा है ये धुआं इर्द गिर्द...
इसे सिर्फ आग-ए-इन्कलाब कहिये...

आज हुकुमरान की कैद में है आज़ादी...
खुले घूमते है कातिल, जेल में है खादी...
अब तो दिल बहलाने को फहराते है तिरंगा ये...
चंद मुट्ठियों ने मसली है करोड़ों कीआबादी...

इधर लहू उबला तो उधर  जमा सा है...
इधर जोश तो उधर ग़मगीन शमा सा है...
आज सडको पे कदमो का जाम है लगा ...
इधर शेर उमड़े, उधर चूहों का झुण्ड जमा सा है...

आज है इतिहास को दोहराने की तयारी...
मशाल बन कर उठेगी ये चिंगारी..
हर उम्र शामिल है इस इन्कलाब  में...
नौ जवां कंधे पे आई बूढ़े अन्ना की सवारी ...

भावार्थ 

Sunday, August 7, 2011

इन्तिशार !!!

कभी जुमूद  कभी  सिर्फ  इन्तिशार  सा  है 
जहां  को  अपनी  तबाही  का  इन्तिज़ार  सा  है 
मनु  की  मछली  न  कश्ती -ऐ -नूह  और  ये  फिजा 
के  कतरे  कतरे  में  तूफ़ान  बे -करार  सा  है 
मैं किसको  अपने  गरीबां  के  चाक  दिखलाऊँ 
के  आज  दामन -ए -यजदान  भी  तार -तार  सा  है 
सजा -संवार  के  जिसको  हज़ार  नाज़  किये 
उसी  पर  खालिक -ए -कुनैन  शर्म -सार  सा  है 
सब  अपने  पाँव  पे  रख -रख  के  पाँव  चलते  हैं 
खुद  अपने  काँधे  पैर  हर  आदमी  सवार  सा  है 
जिसे  पुकारिए  मिलता  है  खान्दर  से  जवाब 
जिसे  भी  देखिये  माजी  के  इश्तेहार  सा  है 
हुई  तो  कैसे  बयाबान  में  आ  के  शाम हुई 
के  जो  मज़ार  यहाँ  है , मेरा  मज़ार  सा  है 
कोई  तो  सूद  चुकाए , कोई  तो  जिम्मा  ले 
उस  इन्किलाब  का , जो  आज  तक  उधार  सा  है 
कैफ़ी आज़मी !!! 

Sunday, July 31, 2011

शिवालय की रौशनी !!!

उधर रात की बाँहों में अँधेरा बढ़ रहा था...
और इधर मंजिल को  देखने की चाहत...
उम्मीद के दो पेरों पे हौसले का धड लिए... 
मैं रौशनी तलाशने को निकल पड़ा...

सर्द हवा चल रही रही...
और में काँप रहा था...
तभी हवा ने शिवालय  का...
घंटा बजा कर मुझे चौंका दिया...

में थका हुआ था...
उसी पत्थर की पनाहों में जा बैठा... 
मेरे आंसू शायद उसे अँधेरे में दिख गए...
शायद इसी लिए पूजते हैं उसे  लोग...

अजूबा ही था की सर्द रात में बादल गरजे...
पानी बरसा और बिजली चमक पड़ी...
और मेरी रौशनी की तलाश ख़त्म हुई...
उस पत्थर पे उस शिवालय पे...

भावार्थ...  

Thursday, June 2, 2011

ये घुंघराले खाब !!!

ये घुंघराले खाब...

जो जेहेन में लिपटे है  कहीं...
जो हैं भी किसी लकीर से महीन...
मुझेमें समंदर से हैं बिछे...

ये घुंघराले खाब...

दिन में बादल से बरसते...
रात भर तारो से लरजते...
सोच के किनारों पे सिमटे ...

ये घुंघराले खाब...

दिल में पिरोये हैं जो...
मुट्ठी में संजोये हैं जो...
आँखों में चमकते...

ये घुंघराले खाब...

कभी तस्वीर-ए-यार लिए...
कभी आईना-ए-अफकार लिए...
अनकहा इज़हार लिए...

ये घुंघराले खाब...

...भावार्थ 





Wednesday, June 1, 2011

हर दफा..!!!

तुझसे मिलकर..
तुझसे बिछुड़ कर...
मैं रहा बेसब्र..
हर दफा...हर दफा...

मय का हर घूँट...
नशे का हर कश...
मुझमें हुआ कैद  ...
हर दफा...हर दफा...

तुझे भुलाने को ...
याद मिटाने को...
आंसू का सैलाब ...
हर दफा...हर दफा...

शाम ढलने तलक...
सहर ओढ़े फलक..
मैं मौत से  उलझा...
हर दफा...हर दफा...

..भावार्थ 

Saturday, May 28, 2011

तन्हाई की गिरिफ्त में !!!



मैं हूँ इक ऐसी नाव में सवार...
जिसमें लहरें है मेरी पतवार...
खानाबदोश साहिल से में जब निकली ...
सिर्फ खाब के तिनके थे मेरे पास..
वो खाब जो डूबते सूरज के तले...
जेहेन में उकेरे थे मैंने...
किसी सा बन जाने के...
किसी ख़ास को पाने के...
दूर तलक कहीं जाने के...
वो मुट्ठी भर खाब ले आये साहिल तक...
और में उसी खुमार में...
जा बैठी उस टूटी सी अधमरी नाव में...
ये सोच कर कि खाब सच होंगे...
मगर जब होश पर लहरों ने दस्तक दी..
तो लगा...
में हूँ एक ऐसी नाव में सवार..
जिसमें सिर्फ लहरें हैं पतवार..
और ऐसे रास्ते कभी मंजिल तक नहीं जाते...
रह जाते हैं तन्हाई की गिरिफ्त में...

भावार्थ...  

Friday, May 27, 2011

तुझसे है आशिकी मेरी.. !!!

तुझसे है आशिकी मेरी..
है तुझसे मेरा ये प्यार...
तुझसे है जिंदगी मेरी ..
है तुझसे मेरा करार...

जो तू गया छोड़ के...
मेरी हस्ती रही नहीं ...
तेरे वास्ते हैं  साँसे ...
तेरे बिन चले  नहीं...

एक तेरा आसरा है मुझे...
एक तेरा  इंतज़ार ...
तुझसे है जिंदगी मेरी...
है तुझसे मेरा करार...

तू ही हया है मेरी ...
तू ही मेरी रजा..
तू ही तोहफा है मेरा ...
तू ही मेरी जजा...

एक तेरा शौक है मुझे...
एक तेरा ही खुमार...
तुझसे है जिंदगी मेरी...
है तुझसे मेरा करार...

मेरा सर जब झुके...
तेरे सजदे के लिए...
मेरे कदम जब चले...
तेरे रस्ते के लिए...

तू ही खुदा है मेरा...
तू ही मेरा संसार ...
तुझसे ही जिंदगी मेरी...
है तुझसे मेरा करार...

तुझसे है आशिकी मेरी..
है तुझसे मेरा ये प्यार...
तुझसे है जिंदगी मेरी ..
है तुझसे मेरा करार...

...भावार्थ  










Wednesday, May 18, 2011

धुंधली राह !!!

धुंधली राह और डगमगाते कदम...
न जाने कितनी दूर तक मेरी जिंदगी जायेगी...

बेहोशी हमको कहाँ ले कर चली ...
न जाने होश की सुबह ये कब आएगी..

हथेली पे ये जो सजाया है महल...
न जाने कब ये आँख मेरी खुल जायेगी...

तुम हो भी और फिर हो भी नहीं...
न जाने तुम्हारी याद कब तक आएगी..

आंसूं नहीं हैं अब बह रह है  लहू...
न जाने कब तक  तेरी तस्वीर रुलाएगी...

कभी वफ़ा के लिए तो कभी बेवफाई के लिए... 
कब तक तुझसे मेरी शख्शियत युही जोड़ी जायेगी.....

कब तक तुझसे मेरी शख्शियत युही जोड़ी जायेगी.....
न जाने कितनी दूर तक मेरी जिंदगी जायेगी...  

भावार्थ... 






Saturday, February 12, 2011

दो साल !!!

आज उस खाब को दो साल हो गए...
जिसे मैंने बीते कल में देखा था...
वो खाब पंख पसारे मेरे जहाँ में ....
ऐसे उड़ा मनो रंग बिखेर रहा हो..
जैसे बाती बन के तारे टिम टिमा रहे हो अमावस में..
जैसे आगोश में मदहोशी सिमट रही हो...
जैसे बिखरी कड़ी को सही कड़ी मिल गयी हो..
आज दो साल हो गये तुमको ...

...भावार्थ 

Friday, January 21, 2011

वो !!

कुछ खाब से दिखा गया वो...
आस के किनारे बिठा गया वो...

उम्र बीत गयी इंतज़ार में...
यु फासले का पर्दा गिरा गया वो...

रात भर दिन तैरता है आँखों में...
ऐसे साहिल पे बिठा गया वो...

भावार्थ



Monday, January 3, 2011

जुदाई के रंग...

फिरोजी सा तेरा प्यार...
व्यास के किनारे पे तनहा बैठे..
उन छोटे पत्थरो में देखा है मैंने...

केसरी सा तेरा प्यार..
तुमसे जुदा हो कर ..
धीमी आंच सा पिघलते देखा है मैंने...

सुनहरा सा तेरा प्यार...
तुम्हारे इंतज़ार में...
आँखों से बहते आंसू में देखा है मैंने...

मूंगरे सा तेरा प्यार...
तुमसे मिलने की आरज़ू में..
दिल के कौनो से निकलते देखा है मैंने...

काश जुदाई के रंगों की तरह..
तुमसे मिलने के रंग भी होते मेरी जिंदगी में...

भावार्थ...

Sunday, January 2, 2011

नए साल का तोहफा धूप !!!

जब बर्फ हवा में घुली हो तो लगता है...
जैसे नाक तक आ कर सांस रुकी हो...

जब बर्फ बरसती बूंदों में घुली हो तो लगता है...
हर चीज़ पर जैसे रुई सी बिछी हो...

जब बर्फ धुंध में घुली हो यो लगता है...
जैसे आप के आस पास कोई पर्दा गिरा हो...

मैंने बर्फ को...
हिमालय के सीने से सटे..
चीर के पेड़ों के ऊपर लादे...
दूर तक  रास्तों पर बिछे...
पिछले तीन दिनों से देखा है...

मगर आज सुबह जब आँख खुली...
तो धूप की किरण से सजी ...
हवा  आस पास लहराती ...
बूंदे फिर पेड़ से टपकती  ..
धुंध फिर शीशे सी चमकती ...
एक बार फिर नज़र आई ..

चाय की प्याली लिए...
मैंने हमसफ़र को जगाया तो लगा ..
मनाली की बर्फ में  धूप की किरन...
नए साल का तोहफा हो ...

भावार्थ  ...