Saturday, November 20, 2010

रूह !!!

कुछ एक कांच के टुकड़े में थी जिंदगी...
कुछ एक टूटे पत्तों में थी जिंदगी...
रिश्तो के पटल से चित्त की गरहियों तक...
कहीं न कहीं बिखरे थे ये कांच, ये पत्ते...
जिंदगी का कोई एक अक्स लिए...
मेरा ही कोई प्रतिविम्ब लिए...

अपने आपको कभी एक सार नहीं जाना मैंने....
कभी चट्टान तो कभी धुआं खुदको माना मैंने...

और फिर तुम आई...
खयालो के वोह कांच जुड़ से गए...
सोच के वोह पत्ते एक साथ मुड से गए...
ख़ुद को आईने में ढलता हुआ पाया मैंने...

उस आईने को जिसे सब जिंदगी कहते हैं...
जब भी देखता हूँ सिर्फ तुम्हे पाता हूँ...
उसके हर एक कांच में, हर एक पत्ते में...
रूह की तरह बसी हो...

भावार्थ

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