Monday, January 25, 2010

उलझी पहेली...

उसके सुलझे खाबो को लिए उलझी रात...
उलझे खाबो की उसकी सुलझी सी बात...
उसने लब्ज़ से न कही..
बात दिल मैं भी न रही ...
तिरछे नैन और उनपे कांपती पलकें...
कभी उठती कभी गिरती...
मगर जेहेन से उभरी बातों को ...
हौले हौले काज़ल मैं लिपटी सौगातों को...
मुझ तक भेजती रही...
मैं समझ गया कि...
सुलझी बात अब नहीं उलझेगी...
पहेली मोहब्बत कि फिर नहीं सुलझेगी...
कि कोई क्यों बेवफा होता है...

...भावार्थ

1 comment:

Anonymous said...

खुदकुशी से पहले

उफ़ ये बेदर्द सियाही , ये हवा के झोंके
किस को मालूम है इस शब् की सहर हो की न हो
इक नज़र तेरे दरीचे की तरफ देख तो लें
डूबती आँखों में फिर ताब -इ -नज़र हो की न हो

अभी रोशन हैं तेरे गर्म शबिस्तान के दिए
नीलगूं परदों से छनती हैं स्हाएं अब तक
अजनबी बाहों के हल्के में लचकती होंगी
तीरे महके हुए बालों की रुआएं अब तक
सर्द होती हुई बत्ती के धुंए के हमराह
हाथ फैलाये बढे आते हैं बोझल साए
कौन पोंछे मेरी आँखों के सुलगते आंसू
कौन उलझे हुए बालों की गिरह सुलझाए
आह ये घार हलाकत , ये दिए का मह्बस
उम्र अपनी इन्हीं तारीक मकानों में कटी
ज़िन्दगी i फितरत -इ -बेहिस की पुरानी तकसीर
इक हकीकत थी मगर चाँद फसानों सी कटी

कितनी आसैस्हें हंसती रहीं ऐवानों में
कितने दर मेरी जवानी पे सदा बंद रहे
कितने हाथों ने बुना अतलस -ओ -कमख्वाब मगर
मेरे मलबूस की तकदीर में पैवंद रहे
ज़ुल्म सहते हुए इंसानों के इस मकतल में
कोई फर्दा की तसव्वुर से कहाँ तक बहले
उम्र भर रेंगते रहने की सज़ा है जीना
एक दो दिन की अजीयत हो तो कोई सह ले
वही ज़ुल्मत है फजाओं पे अभी तक तारी
जाने कब ख़त्म हो इंसान के लहू की ताक्तीर

जाने कब बिखरे सिया - पोश फजा का जोबन
जाने कब जागे सितम खुर्दः बशर की तकदीर

अभी रोशन हैं तेरे गर्म शबिस्तान के दिए
आज मैं मौत के घारों में उतर जाऊंगा
और दम तोड़ती बत्ती के धुंए के हमराह
सरहद -इ -मार्ग -इ -मुसलसल से गुज़र जाऊंगा
cheers!!