Friday, July 31, 2009

काले-काले साए हैं.

उन गीतों के,
उन बातों के,
अल्फाजों के
कुछ
काले-काले साए हैं।

अपनी सफ़ेद हथेलियों
पे
जब तुमको ढूंढा करती हूँ,
ये तीखी लकीरें
हाथों में
गहरे खोदती जाती हैं,
फिर तकदीरें चो-चो कर
खोखला सा
कर जाती हैं,
और
हाथों में
जो बसता है
जो बचता है ,
ये
काले-काले साए हैं।

कभी कभी
शाम के ख्वाब
रेत
की तरह जो
उड़ने लगते हैं
आँखों में सूखे पत्ते
बेलों से चढ़ने लगते हैं,
और काली पुतली आँखों की,
एकदम पीली पड़ जाती है,
ये
उनमें भी भर जाते हैं,
फिर सारे ख्वाब एक-एक करके,
दम घुटने से मर जाते हैं,
ये
काले-काले साए हैं।


क्या तुमको भी ये सताते हैं,
जब
सूनी झुलसती रातों में
अपना भी रंग नहीं दिखता,
तब अँधेरे से गहरे
ये
चीखते चिल्लाते से हुए
हर और
टूटते रहते हैं,
कानों में धंसते जाते हैं,
ये काले-काले साए हैं।
उन बातों के
उन गातों के
अल्फाजों के
ये.........

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