Sunday, May 24, 2009

अकर्मण्य !!!

जागने की सोचता हूँ जो में...
पसीने में लथ-पथ लोग नज़र आते हैं...
रोटी को दौड़ते जिस्म नज़र आते हैं...
झूठ को तोलते बोल नज़र आते हैं...
गरीबों को निचोड़ते अमीर नज़र आते हैं...
अपंगो को झटकते सुडोल नज़र आते हैं...
कला को बेचते कलाकार नज़र आते हैं...
जिस्मो को परोसे अफ़कार नज़र आते हैं...
जमीर को छोड़ते इंसान नज़र आते हैं...
दरिंदगी बिखेरते हैवान नज़र आते हैं...
कतारों में लगे लाखो वजूद नज़र आते हैं...
कितने दर्द जेहेन में मौजूद नज़र आते हैं...
अश्क भर आते है मेरी आंखों में...
और मैं लौट जाता हूँ नींद मैं...
उन सपनो में जो खुदा ने मुझे बख्शे हैं...

भावार्थ...

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