Thursday, April 23, 2009

है बस_की हर इक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मोहब्बत तो गुज़रता है गुमान और

या_रब!, न वोः समझें हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबां और

अबरू से है क्या उस निगेह-ऐ-नाज़ को, पैवंद?
है तीर मोक़र्रार, मगर उसकी है कमान और

तुम शेहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जा_कर, दिल_ओ_जान और

हर_चाँद सुबुक_दस्त हुए बुत_शिकनी में
हम हैं तो अभी राह में हैं संग-ऐ-गिरां और

है खून-ऐ-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते जो कई दीदा-ऐ-खून या न निशाँ और

मरता हूँ उस आवाज़ पे हर_चाँद सर आर जाए
जल्लाद को लेकिन वोः कहे जाएँ की "हाँ और!"

लोगोंको है खुर्शीद-ऐ-जहाँ_ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ऐ-निहां और

हैं और_भी दुनिया में सुखन_वर बहोत अच्छे
कहते हैं की "ग़लिब" का है अंदाज़-ऐ-बयान

...मिर्जा गालिब

No comments: