Sunday, April 5, 2009

मुसाफिर !!!

रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...
अंधेरे को साँस भर पी पी जाना ...
काले शामियाने में जी जी जाना...
घटाओ में लिपटी हवा बैरी खिजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

रात के मुसाफिर को...

खटकती है कदमो की आहट भी दिल में...
सुलगती है बढ़ने की चाहत भी दिल में...
बिखरा पड़ा वजूद भी खुदा की रजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

रात के मुसाफिर को ...

काटते हैं जुगनुओ के ये दंश बार बार...
चीरती है फूँस की गीली शीत बार बार...
मील के पत्थरों की दूरी बुरी फिजा सी लगे...
रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

रात के मुसाफिर को जिंदणी सजा सी लगे...

भावार्थ...

1 comment:

Stranger said...

Masto poem hai bhai...