Wednesday, November 19, 2008

दो अजनबी अजनबी रहो पे !!!

एक और निकाह, एक और शादी, एक दास्ताँ पुरानी ...
एक और पाबन्दी, एक और कसक,एक और कहानी ...

कुछ
अपना कहने वाले होंगे...
और न जानने वालों की भीड़ आएगी...
कुछ घंटो की रौनक फिजा में...
जिंदगी गुलज़ार सी महक जायेगी...

दो
अजनबी अजनबी रहो पे ...
अजनबी अंदाज़ से निकल जायंगे...
बेचैन जिस्म सेहरा से तपते...
कुछ एक पल को गिरी बूंदे पायंगे...
रूह की तासीर ही आज़ादी की है ...
जिमेदारियां बेडियाँ बन लहरायेंगी...
मकसद भी शादी के अजीब से है...
अपने किए पे वो फ़िर पछतायेंगे...

प्यास
बुझाने को तो बाज़ार काफ़ी हैं...
बेजार रिश्ते को यु ही ढोने का मतलब क्या है...
तनहाई उस बुढापे की कटेगी कैसे...
दिल लगाने को हस्ती मिटाने का मतलब क्या है...
जो तुमको बनानी हैं खानदान की सीढ़ी ...
मासूम को यु ही मसलने का मतलब क्या है...
हमसफ़र की चाहत जो है भी अगर...
उमीदों के अम्बार लगाने का मतलब क्या है...
जीते जागते हँसते बोलते इंसान को...
रिवाजों को ढोता मजदूर बनाने का मतलब क्या है...
सादगी का तो खुदा का तोहफा है जिसे...
उसे रंगीन चीथडो से सजाने का मतलब क्या है...
खुलकर जीने को बेताब एक और रूह को ...
शादी में मुजस्समे से सजाने का मतलब क्या है...
अग्नि पर लिए गए रूहानी वादों को...
कटघरे में आख़िर घसीटने का मतलब क्या है...

फ़िर कहीं से एक खुदखुशी की खबर...
झूल गई एक और लैला की ख़बर...
दहेज़ को प्रताडित बहु की ख़बर...
तलाक पे आमदा बेगम की ख़बर...
नापाक रिश्तों के बनने की ख़बर...
सालों से बस घुटती रूह की ख़बर...
कमरों से उठती चीखो की खबर ...
कोख में मसले अंश की ख़बर...
अपनों की घिनोनी हरकतों की ख़बर...

इन्तहा इसकदर हो जिस इब्तिदा की...
उस दर्द-शुदा सफर की चाहत क्यो हो ?...
जर्द हो जाएँ जिससे ख़ुद के जमीर के चेहरे...
उस रंगीनियत को ओढ़ने की चाहत क्यों हो ?
कुछ अरमानो को जिंदगी देने की खातिर...
कई ख्वाईशों को मिटाने की चाहत क्यों हो ?

जिंदगी तो तन्हाई को भी पुरी दुनिया बना सकती है...
जिंदगी तो किसी शख्स के बिना भी मुस्कुरा सकती है...
क्यों न ऐसी ही पाख सी जिंदगी जी जाए...
क्यों न खुले आसमा में परवाज़ ली जाए...
अपने अफकारो को बहती दिशा दी जाए...

भावार्थ...

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