Thursday, October 23, 2008

भूख की शकले...!!!

भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...

सुबह शायद सबसे संगदिल है...
बच्चो की बिलख उड़ उड़ के आती है...
एक रोटी और तीन पेट क्या खुदाई है ...
उजड़ते बचपन में भूख उभर आती है...

रुंदन
की घटा हर रोज युही बरसती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....

चौराहे पे एक गोले से निकली लड़की...
न जाने कितनी तरह से ख़ुद को मोडे है...
भूख भी क्या करतब सिखाती है...
अपने बचपन को पगली पीछे छोडे है...

अदाकारी
भी इंसान में ऐसे ही बसती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...

जो है वो शायद जिन्दा रखने को काफ़ी नहीं...
रास्ता सूझता नहीं उस बुझती सोच को...
भीख मागने पे जमीर आ खड़ा होता है ....
चुरालिये कुछ एक टुकड़े भूक मिटाने को.....

चोरी
जन्मजात होने का न निशाँ रखती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है...

भूखी माँ क्या खिलाये भूखे बच्चे को...
दूध आँचल से अब नहीं रिसता उसके...
फ़ुट पड़ता है उसका गुस्सा बचपन पे...
जब चीखते बच्चे खीचते है हाथ उसके...

ख़ुद
से नारजगी गुस्सा बनके उभरती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....

टूटा बदन और बिखरा हुआ जेहेन...
कहाँ से जिन्दा होने का हौसला लाये...
भूख का बाँध कभी तो टूटेगा....
सांसी चलने का फ़ैसला कहाँ से लाये...

हैवानियत
इंसान में यही से पनपती है...
भूख न जाने कितनी शकले लिए फिरती है....

भावार्थ...

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