Friday, October 3, 2008

मेरा अस्तित्व हैरान है

मेरा अस्तित्व हैरान है उसके होने पे।
और में एक बुद्धू सा बना बैठा हूँ।
कागज़ को आसमान सा समझाता हूँ।
इन्द्रधनुष को बहरूपिया समझ बैठा हूँ।

स्याही की नदी के किनारे मेरी नाव है।
लेखनी के पेड़ उगते क्यों नहीं।
समंदर से कुछ अल्फाज़ हथेली पे लिए।
ये मेरे आसमान को भरते क्यों नहीं।

ये कहानियो के जंगल जो जल रहे हैं।
तन्हाई इनकी आग बन गई।
नज़्म, गज़ले खौफ-शुदा हैं सभी।
रूह उनकी शोर में घुल गई।

आज अँधेरा दिवाली मना रहा है।
उसने तारे इतने दूर-दूर जलाये हैं।
मेरी आँखें आसमान तक रही हैं।
हर्फ़ उसपर अबतक नहीं उतर पाये हैं।

कुछ हवाएं चमकने लगी कहीं।
जुगनू उसकी रौशनी में गुम हो गए।
मेरा अस्तित्व हैरान सा है उसके होने पे।
और ये कुछ अल्फाज़ आस्मां पे सो गए।

भावार्थ...

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही बढिया रचना है।बधाई।


आज अँधेरा दिवाली मना रहा है।
उसने तारे इतने दूर-दूर जलाये हैं।
मेरी आँखें आसमान तक रही हैं।
हर्फ़ उसपर अबतक नहीं उतर पाये हैं।

Anonymous said...

I think this is an excellent piece of poetry..Good going!!