Tuesday, September 16, 2008

सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे !!!

गुल को अपने इर्द गिर्द के कांटे चुभने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

कौन सा मौसम है ये जो पतझड़ है न बहार।
न बादल घिर के आते हैं न कोई ठंडी फुहार।
न लू लिपटी हुई है न कोहरे का कोई खुमार।

अजीज गुलज़ार के मिजाज भी बदलने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

न कोई कोयल चहकी न कोई पपीहा आया।
न बुलबुल आई न कुछ कबूतर खबर लाया।
न तुतला के तोता बोला न कोई गुनगुनाया।

वीराने उसे तन्हाई के आगोश में भरने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

न ये पत्ते हरे रहे न ये टहनियां मटमैली रही।
न कलियाँ गुलाबी न फूल की वो लाली रही।
न कांटो की वो चुभन न डाली की नजाकत रही।

बहती हवा भी जब कसक में सिसकने लगे।
सुर्ख लाल अश्क झड़ के पत्तो पे गिरने लगे।

भावार्थ...

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