Friday, July 25, 2008

उरूसी...किश्वर नहीद

मैंने तनहा सेकदों राते गुजारी जागकर ये सोचते।
किस तरह होगी उस वस्ल की शब् की सहर।
जिस शब् की आखो की चुभन
नींद की खुश्बो की बाँहों से लिपट के सो रहे।
मैंने बचपन से ही पूजा था दुल्हन का अक्स रंग।
जमनी रुखसार की रंगत, महक उबटन कलम।
शोला ला रू शोला नफस।
सिमटी सिमतायी से गठरी की तरह बैठी हुई।
मैंने बचपन से चाह था की दुल्हन बन जाऊं।
चम्पई रंगत को गहरे शोलारू कपड़ो में ऐसे धाप लो।
मेरा चेहरा मेरी सकियाँ ढूढने बैठे तो थक के हस पड़े।
मुझको गठरी की तरह देखे तो ढोलक थाम ले।
में दुल्हन ऐसी बनी लेकिन की न मेहँदी थी न अफ्सा।
और न उबटन का खुमार।
आँखों में काज़ल की तहरीर भी
अपनों से जुदाई के गम में धुल गई।
और रह गई उस तरफ़ की खुशबू की जिसके नाम पे।
खून के रिस्तो को भी नई जिंदगी समझ नहीं।
और फ़िर खुशबू से रिश्ता पाबक है।
ख्वाब के मानिंद जीन पाबक है।

किश्वर नहीद...

No comments: